गर्भपात, एक धार्मिक परिप्रेक्ष्य - II
 
गर्भपात, एक धार्मिक परिप्रेक्ष्य- II: जन्म देना एक महान कार्य

इस श्रृंखला का दूसरा भाग, मानव जीवन से जुड़े महत्व और क्यों धार्मिक परंपरानुसार एक बच्चे को जन्म देना पुण्य कर्म माना जाता है, इसपर केंद्रित है।

इस श्रृंखला के भाग-1 में, गर्भपात के विषय को धर्मिक दृष्टिकोण से देखते हुए, हमने प्रश्न किया था कि एक जीव कौन है? हमने यह भी देखा कि कैसे धर्मिक परंपरा में, एक जीव को केवल भौतिक इकाई के रूप में ही नहीं माना जाता है। बल्कि, जीव को एक “जटिल बहुस्तरीय इकाई” के रूप में पहचाना जाता है, जो एक ओर ब्रह्म, परम दिव्य सत्य का प्रतिबिंब है तो दूसरी ओर त्रि-शरीर और पंच कोष से संपन्न है, जिसके माध्यम से जीव बाहरी ब्रह्मांड के साथ संवाद स्थापित करता है।

“श्रृंखला के इस भाग में, अब हम मानव जीवन से जुड़े महत्वों पर ध्यान देंगे और  यह भी समझेंगे कि एक बच्चे को जन्म देना धार्मिक परंपरा में क्यों एक पुण्य कर्म माना जाता है।

मानव जीवन का महत्व 

आदिगुरु  शंकराचार्य ने अपने अभूतपूर्व कार्य “विवेकचूडामणि” के दूसरे श्लोक में कहा है कि सभी जीवित प्राणियों में, मानव के रूप में जन्म लेना बहुत दुर्लभ माना गया है। उनके इस कथन के गहन अर्थ को समझने के लिए हमें यह देखना पड़ेगा कि पूरे ब्रह्मांड में रहने वाले प्राणियों की मात्रा और विविधता के बारे में “पद्म पुराण” क्या कहता है।

पुराण कहता है: “इस जीवन के कुल चौरासी लाख रूप हैं। जिसमें पानी में रहने वाले जीवों के नौ लाख अलग अलग प्रकार हैं तो पेड़ों और अन्य पौधों के बीस लाख। अगर बात छोटे जीवों, कीटों और सरीसृपों की करें तो उनकी ग्यारह लाख अलग-अलग प्रजातियां हैं वहीँ पक्षियों की दस लाख प्रजातियां हैं। कुल मिलाकर जानवरों की तीस लाख किस्में और कुल मानव प्रजातियां चार लाख हैं [1]। इसी तरह, मनु स्मृति में विभिन्न प्रकार के प्राणियों जैसे कि मवेशी, हिरण, दो पंक्तियों के दाँत वाले मांसाहारी जानवरों, राक्षस, पिशाच और मनुष्यों के बारे में बात की जाती है, जो सभी हैं गर्भ से जन्म लेते हैं(श्लोक 1.43); पक्षी, साँप, मगरमच्छ, मछलियाँ, कछुए और अंडे से पैदा होने वाले अन्य समान स्थलीय और जलीय जानवर (श्लोक 1.44), चुभने और काटने वाले कीड़े, जूँ, मक्खियां, और अन्य सभी जीव, जो गर्मी से उत्पन्न होते हैं (श्लोक 1.45), पौधे जिनमें फूलों के बिना फल लगता है, और जिनमे दोनों लगते हैं (श्लोक 1.47); यक्ष, गन्धर्व, अप्सरा, असुर, नाग और सर्प, सुपर्ण और अनेकों वर्ग (श्लोक 1.37) आदि के बारे में वर्णन है।

हालांकि, न तो पद्म पुराण में बोली जाने वाली विभिन्न प्रजातियों की बड़ी संख्या, और न ही यक्ष जैसे जीवित प्राणियों की प्रजातियां, आज के आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग कर पुष्टि करने योग्य हैं। परंतु वह सिद्धांत, जो हमारी वर्तमान चर्चा के लिए प्रासंगिक हैं, वह यह कि “इस संसार में मनुष्य ही केवल वैसी प्रजाति नहीं है जो अस्तित्व में है  जबकि ब्रह्मांड में लाखों अन्य जीवित प्रजातियां भी हैं” और मनुष्यों के बारे में बात करते हुए धार्मिक विश्वदृष्टि ही हमारे इस ब्रह्मांडीय समझ को पूरा कर सकती है ।

तो, यहाँ सवाल यह उठता है कि इन सभी लाखों जीवन-रूपों के बीच मानव जीवन में ऐसा क्या है जो इसे खास बनाता है?

अगर धर्मिक विश्वदृष्टिकोण से समझा जाए तो हरेक जीव, अपने पिछले कर्मों के परिणामों के हिसाब से विभिन्न प्राणियों के रूप में जन्म लेता है, जिसका उद्देश्य अपने पिछले कर्मों का फल (सुख या दुःख) से मुक्ति पाना और इसके साथ नए कर्म भी करना है, जो जीव के भविष्य की यात्रा की दिशा और दशा निर्धारित करेगा। दूसरे शब्दों में, मनुष्यों के रूप में या गैर-मनुष्यों के रूप में जन्म का मुख्य उद्देश्य, जीव को मोक्ष के अंतिम लक्ष्य की ओर अपनी लंबी यात्रा के लिए मार्ग प्रशस्त करना है जबकि कौन सा जीव किस रूप में जन्म लेगा, यह उसके द्वारा किए गए पूर्व कर्मों के आधार पर निर्धारित होता है।इसके बारे में मनु स्मृति में भी वर्णन है कि एक जीव, जो सात्विक है और जिसके कर्म सत्त्वगुण में निहित हैं वह मृत्यु के बाद कैसे ईश्वर की प्राप्ति करता है। वहीं एक जीव, जो राजसिक गुणों में डूबा हुआ है, वह फिर से मानव जीवन प्राप्त करता है और एक तामसिक जीव, जिसके कर्म तमस गुण में निहित होते हैं, वह विभिन्न गैर-मानव प्रजातियों जैसे पक्षी, जानवर आदि के रूप में जन्म लेता है (श्लोक 12.40)। गुणों पर आधारित कर्मों की प्रतिचित्रण  के बारे में ज़्यादा जाने बग़ैर भी हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि वे सभी क्रियाएं, जो हमारे आंतरिक विवेक के विरुद्ध हैं या जिसे लेकर हमें अपने आप में लज्जा महसूस होती है, उदाहरण के लिए लालच, क्रूरता, जड़ता, अज्ञानता इत्यादि  अधार्मिक (निषिद्ध) क्रियाएँ  है और इसे तामसिक क्रिया (श्लोक 12.33,35) के रूप में माना जाता है। इसी प्रकार, सांसारिक सुखों की लालसा से नाम और प्रसिद्धि पाने के लिए की जाने वाली क्रियाएं, राजसिक क्रियाएं हैं (श्लोक 12.32,36), जबकि तपस्या, ज्ञान, इन्द्रिय संयम आदि में निहित कर्म जो हमें आंतरिक संतोष प्रदान करते हैं, इसे सात्विक क्रिया माना जाता है। (श्लोक 12.31,37)

मनु स्मृति आगे कहती है कि, एक मानव के रूप में यदि किसी जीव के कार्य मुख्य रूप से धार्मिक प्रकृति के हैं, तो यह व्यक्ति स्वर्ग [2] को प्राप्त करता है, जबकि एक जीव, जो मुख्य रूप से अधार्मिक कार्यों में लिप्त है, वह अपने सूक्ष्म शरीर में बहुत कष्ट भोगेगा और वह फिर से जन्म लेने के लिए वापस आएगा।(श्लोक 12.20-22)। इससे यह समझा जा सकता है कि जब किसी जीव का संचित कर्म बहुत बड़ा हो जाता है तब जाकर एक जीव, मानव के रूप में तब जन्म लेता है,  यानी प्रारब्ध कर्म में राजसिक गुण की प्रबलता के साथ धर्मिक और अधार्मिक, दोनों कार्यों का समान महत्व होता है। शायद इसलिए आदिगुरु शंकराचार्य ने मानव जन्म को बहुत दुर्लभ बताया था।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि, देवत्व की तरह ही शुद्ध रूप से सात्विक अस्तित्व, मानवीय अस्तित्व से बेहतर है परंतु मानव जीवन भी गैर-मानव प्राणियों के रूप में जन्म लेने से कई गुणा बेहतर है क्यूँकि ग़ैर-मानव प्रजातियाँ, अपनी निहित सीमाओं के कारण गंभीर पीड़ा से गुजरते रहते हैं। इससे सम्बंधित मनु स्मृति में भी यह चर्चा है कि वैसे लोग, जो अपने शरीर और कार्यों के माध्यम से अधर्मिक कार्य (जैसे हिंसा, चोरी, व्यभिचार श्लोक 12.7) जैसे अपराध करते हैं , वो पौधों और पेड़ों के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं, जिनकी निहित सीमाएं उनकी शारीरिक हरकतों में अक्षमता है और इसी अक्षमता के कारण वे कष्ट भोगते हैं। (श्लोक 12.9)। इसी प्रकार, जो लोग बोली के माध्यम से अधर्म करते हैं (जैसे असत्य बोलना, कठोर बोलना, गाली देना, पीठ पीछे शिकायत करना, आदि- श्लोक 12.6), विभिन्न जानवरों के रूप में फिर से जन्म लेते हैं (श्लोक 12.9), जिन्हें  हालांकि शारीरिक रूप से हरकत करने की स्वतंत्रता तो होती है पर मुंह से बोलने में असमर्थ होते हैं। इस प्रकार वे अपने बोलने की इस अंतर्निहित सीमा के कारण पीड़ित हैं। इसलिए, मानव जीवन का महत्व और विशिष्टता इस तथ्य में निहित है कि, उनके पास न तो शारीरिक हरकतों जैसे चलना, उछल-कूद करना, की बाधाएँ हैं और न ही बोलने और व्यक्त करने की रुकावट। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि, मानव योगाभ्यास के माध्यम से सिद्धियों [3] को प्राप्त कर सकते हैं , जो तब मानव जीवन की अन्य बाधाओं (जैसे दुःख, मानसिक पीड़ा, आदि) को पार करने के लिए प्रयोग की जा सकती हैं।

लेकिन, पृथ्वी पर मानवीय अस्तित्व और गैर-मानवीय जीवन-रूपों के बीच सभी अंतरों में जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है वह है, बुद्धि – सही और गलत, सच और झूठ (विवेक) के बीच भेदभाव करने की क्षमता – जो मनुष्यों के लिए पूरी तरह से विकसित भी है और यही वह चीज़ है, जो मानव जीवन को अद्वितीय और सबसे कीमती भी बनाता है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, “मनुष्यों को छोड़कर सभी जीव अपने आप अपने स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं। यद्यपि यही स्वाभाविक रूप से विकसित प्रवृत्ति जीवों को उनके अस्तित्व को बचाने में मदद करती हैं परंतु यही  उन्हें एक बंधन में बाँधती भी है और सीमित भी करती हैं। केवल मनुष्य ही एक ऐसा जीव है, जो अपने प्राकृतिक प्रवृत्ति के दायरे में बँधा नहीं हैं और इसलिए वह स्वेच्छा के साथ स्वतंत्र चिंतन भी कर सकता है। और यह स्वतंत्र चिंतन एक सही और सकारात्मक दिशा में हो इसके लिए शास्त्रों ने चार लक्ष्य की रूपरेखा के बारे में बताया गया है कि हरेक मनुष्य को [4] इसे  हासिल करने का प्रयास करना चाहिए।

श्री चंद्रशेखर भारती, जो श्रृंगेरी पीठ के पूर्ववर्ती शंकराचार्यों में से एक हैं, वह मानव जन्म के दुर्लभ होने का का एक और महत्वपूर्ण पहलू बताते हैं। विवेकचूडामणि के खंड के आरंभ में उद्धृत वचन पर उनकी टिप्पणी में [5], वे बताते हैं कि मनुष्यों का आस्तिक होना, मानव जन्म को अद्वितीय और दुर्लभ बनाती है। आस्तिक उसे कहते हैं, जो “शरीर से अलग आत्मा के अस्तित्व में” विश्वास रखता हो और जिसका “शास्त्रों में भरोसा हो तथा उसके द्वारा कार्य करता हो।” वे कहते हैं कि आदि शंकराचार्य का यह कथन कि “मनुष्य के रूप में जन्म लेना दुर्लभ और कठिन है”, यह “शरीर से अलग आत्मा के अस्तित्व” की पुष्टि करता है। चूँकि एक “आस्तिक” मनुष्य कर्म और मोक्ष (मुक्ति) दोनों से संबंधित शास्त्रों में पूर्ण विश्वास रखता है, और इसके अनुसार अपने कार्य भी करता है, इसलिए वह शास्त्रों के अध्ययन को अपनाने के लिए योग्य भी है जो अंततः व्यक्ति का मोक्ष की ओर मार्ग प्रशस्त करता है। अंत में आचार्य यह भी कहते हैं कि  “शास्त्र चर्चा में संलग्न होने के लिए सबसे पहली शर्त व्यक्ति का आस्तिक होना है।चूँकि आस्तिक शब्द केवल मानव जीवन के लिए ही लागू होता है, इसलिए भी मनुष्य के रूप में जन्म प्राप्त करना इसे अपने आप में दुर्लभ और ख़ास बनाता है। दूसरे शब्दों में, यह मानवीय क्षमता ही है, जो उसे स्व और गैर-आत्म-संस्थाओं के बीच भेदभाव करने के योग्य बनाता है । और “अस्तिक्यम” को स्वीकार करना और धर्म एवं मोक्ष पर शास्त्रों की निषेधाज्ञा का पालन करना ही मानव जन्म को विशिष्ट बनाता है।

इसलिए, बुद्धि के  सोचने-विचारने और निर्णय लेने की क्षमता, विवेक और उसके स्वतंत्र सोच के अनुसार धर्म और अधर्म निभाना ही है, जो मोक्ष की ओर जीवन की यात्रा में मानव जीवन को और भी महत्वपूर्ण बनाता है। एक पौधे, पशु, पक्षी, कीट-पतंगा या एक सूक्ष्म जीव के पास यह स्वतंत्र इच्छा नहीं होती है। चूंकि, वे सहज ज्ञान से अपना जीवन जीते हैं इसलिए वे पिछले कर्मों के आधार पर केवल अस्थायी सुख या दुःख का अनुभव कर सकते हैं। दूसरी ओर, मनुष्य न केवल पिछले कर्मों के फल का अनुभव करता है, बल्कि अपनी सभी गतिविधियों और भौतिक कार्यों में धर्म का पालन करके मोक्ष की ओर अपनी यात्रा को तीव्र करने का विकल्प भी चुन सकता है और शास्त्रों के अनुसार स्वयं द्वारा अभिनीत अपने वास्तविक स्वरूप के बारे में जानने की कोशिश भी कर सकता है। यह मुक्त सोच, जो मनुष्य को न केवल पिछले कर्मों के परिणामों का सामना करने के लिए बल्कि इस जीवन में उचित लाभकारी कर्म करने की क्षमता प्रदान करता है, यह मानव जीवन के महत्व को सारांशित करता है।

जन्म देना, एक पुण्य कर्म

चूँकि, मानव जीवन बहुत ही असाधारण और दुर्लभ है, धर्मिक परंपरा यह मानती है कि एक मनुष्य को जन्म देना महान कार्य है और इसे गृहस्थ-आश्रम का परम कर्तव्य भी माना जाता है। उदाहरण के लिए, वृहदारण्यक उपनिषद, शास्त्रों के अध्ययन, कर्मों (यज्ञ और अन्य कर्तव्यों) के फलस्वरूप परिणामों और गृहस्थ-आश्रम के परम कर्तव्य के रूप में तीनो लोकों को प्राप्त करने के बारे में बताता है [6] (श्लोक 1.5.1))। यह आगे बताता है कि एक गृहस्थ को पाने के लिए तीनों लोकों में पहला इंसानो की दुनियाँ यानि पृथ्वीलोक, दूसरा पूर्वजों की दुनिया पितृलोक और तीसरा देवताओं की दुनिया, देवलोक (श्लोक 1.5.16) है। यह कहता है कि एक गृहस्थ को संतान के माध्यम से ही पृथ्वीलोक की प्राप्ति हो सकती है [7], जबकि पितृलोक और देवलोक को क्रमशः कर्म और भक्ति के निरंतर अभ्यास द्वारा प्राप्त किया जा सकता है (श्लोक 1.5.16)। इसी तरह, तैत्तिरीय उपनिषद में, वेदों और अन्य ज्ञान प्रणालियों को पढ़ाने के बाद, ब्रह्मचर्य के पूरा होने से ठीक पहले गुरु छात्र को अंतिम निर्देश देते हैं। अन्य निर्देशों जैसे सत्य बोलना और धर्म का पालन करना, इसके अलावा गुरु अपने छात्रों को संतान की रेखा को बीच में नहीं काटने अर्थात वंश-वृद्धि का भी पाठ पढ़ाते हैं (श्लोक 1.11.1), यानि गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के और उसके बाद पुत्रों और पुत्रियों के द्वारा अपना परिवार शुरू करने की शिक्षा देते हैं।ऋग्वेद संहिता के भीतर भी विशदेव के अध्याय में “भ्रूण की सुरक्षा के लिए प्रार्थना” का उल्लेख मिलता है, जहाँ भगवान विष्णु की भ्रूण के संरक्षक के रूप में प्रशंसा की गई है। भगवान की प्रार्थना करते हुए यह कहा गया है कि ” हे भगवान ! यह प्रशंसा का गीत आप तक पहुँचे। हे शिशु के भविष्य के अभिभावक ! अपने आशीर्वाद से भविष्य के शिशु को संरक्षित करे( ऋग्वेद संहिता 9.36.9)। ऋग्वेद संहिता में ही एक अन्य स्थान पर शिशु के बनने की हरेक प्रक्रिया के सुरक्षा के लिए विभिन्न देवताओं से प्रार्थना किया गया है। विष्णु से गर्भ  निर्माण की प्रार्थना की गई है, तवस्तार से आकार देने को अनुरोध किया गया है, सिनिवाली से  उसमें बीजारोपण का और अन्य देवताओं जैसे प्रजापति, सरस्वती और अश्विन से बच्चे के जन्म में सहायता करने का अनुरोध किया गया है।

लेकिन, यह गृह्यसूत्रों और स्मृतियों में है, जिसमें बच्चे के सुरक्षित और पौष्टिक जन्म को सुनिश्चित करने के लिए किए जाने वाले विभिन्न अनिवार्य संस्कारों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है ताकि हम धर्म परंपराओं में इस जन्म को दिए गए महत्व को समझ सकें।

संस्कारों को उन कृत्यों या अनुष्ठानों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो किसी वस्तु या व्यक्ति को कुछ उद्देश्यों के लिए उपयुक्त बनाते हैं [9]। संस्कारों द्वारा प्रदान की जाने वाली यह योग्यता दो प्रकार की होती है: वह जो अतीत के किए गए पापों के मिटने के कारण उत्पन्न होती है और जो नए कर्म से उत्पन्न होती हैं [10]। दूसरे शब्दों में, संस्कार शुद्धि की एक पवित्र प्रक्रिया हैं। मनु स्मृति कहता है कि गर्भधारण जैसे जन्मपूर्व संस्कार, और जन्मकर्म, चौल, और उपनयन जैसे प्रसवोत्तर संस्कार बीज और गर्भाशय से उत्पन्न दोषों को दूर करने में मदद करते हैं (श्लोक 2.2.1) जो माता से विरासत में मिलता है। इसी तरह का विचार याज्ञवल्क्य स्मृति द्वारा भी व्यक्त किया गया है (श्लोक 1.13)। जबकि कुल्लूका, जो मनु स्मृति के टिप्पणीकार हैं, वह बताते हैं कि बीज के कारण दोष, जो निषिद्ध तरीके से (अर्थात निषिद्ध दिनों और समय पर) किए गए संभोग से उत्पन्न होते हैं , और गर्भ के कारण दोष, जो अशौच स्थिति के दौरान अपनी मां के गर्भ में भ्रूण के रहने से उत्पन्न होते हैं। मिताक्षरा, जिन्होंने याज्ञवल्क्य स्मृति पर टिप्पणी की है, वह बताते हैं कि बीज और गर्भाशय के कारण दोष, शारीरिक कमियों के रूप में होते हैं, जो माता-पिता से संचरित हो सकते हैं। प्रसवपूर्व महत्वपूर्ण संस्कारों में गर्भाधान, पुंसवन, गर्भ-रक्षण और सीमन्तोन्नयन शामिल हैं। गर्भाधान संस्कार का उद्देश्य उचित गर्भाधान सुनिश्चित करना है। अन्य चीजों के बीच अनुष्ठान में मां के गर्भ को तैयार करने के लिए, गर्भाधान के समय बच्चे के आकार (भ्रूण) के उचित गठन के लिए, स्वस्थ और शक्तिशाली शुक्राणु के लिए, गर्भाधान और अंत में संभोग से ठीक पहले सफलतापूर्वक गर्भाधान का कारण बनने के लिए, विष्णु, थ्वस्टा, प्रजापति और धात्री को आमंत्रित करने वाले मंत्रों का पाठ शामिल है।  (हिरण्यकेशिन गृह्य सूत्र 1.7.25.1)। गर्भधारण, जैसा कि नाम से ही पता चलता है, गर्भपात से भ्रूण की रक्षा के लिए किया जाता है। मूल रूप से यह पुंसवन संस्कार (जिसका उद्देश्य भ्रूण के त्वरितीकरण को सुविधाजनक बनाना है) का हिस्सा था [11]। बाद में, यह एक पूर्ण विकसित संस्कार में विकसित हुआ प्रतीत होता है। शंखायण गृह्यसूत्र के अनुसार, यह चौथे महीने (श्लोक 1.21) के दौरान किया जाता है, जबकि अन्य ग्रंथों जैसे बैवावापा गृह्यसूत्रों [१२] से पता चलता है कि यह दूसरे या तीसरे महीने के दौरान किया जा सकता है। अन्य बातों के अलावा, संस्कार में मां और गर्भस्थ शिशु की रक्षा के लिए ऋग्वेद से मंत्रों का जाप शामिल है (संख्याना गृह्यसूत्र 1.21)। इस समारोह में माँ के दाहिने नथुने में एक जड़ी बूटी (दुर्वासा) की सिप को सम्मिलित करना (अश्वालयान गृह्यसूत्र 1.13.5) शामिल है। वास्तव में, धर्मशास्त्र के इतिहास के प्रसिद्ध लेखक पी.वी. केन ने बताया है कि “गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा के लिए देवताओं के नथुने में दुर्वासा को सम्मिलित करना, उनके हृदय को स्पर्श करना और देवताओं से प्रार्थना करना मुख्य विशेषताएं हैं [13]|” इसके बाद सीमन्तोन्नयन है, जो चौथे (आपस्तम्ब गृह्यसूत्र 6.14.1), छठे (गोभिल गृह्य सूत्र 2.2) या गर्भावस्था के सातवें महीने  (संख्यान गृह्य सूत्र 1.22.1) में की गई गर्भवती माँ के बालों को बाँटने का कार्य है। । अन्य बातों के अलावा, इसमें देवी राका की पूजा शामिल है जिसमें ऋग्वेद से मंत्रों का उपयोग करके भ्रूण और जीव की सुरक्षा के लिए अनुरोध किया गया है, जो जन्म लेने के बारे में है (संख्यान गृह्यसूत्र 1.22.13)। हरिता धर्मसूत्र [14] में आगे कहा गया है कि सिमंतोन्नयन भ्रूण को माता-पिता से प्राप्त दोषों को दूर करता है। इससे पता चलता है कि जन्म के पूर्व संस्कार, जो अक्सर माताओं के लिए विभिन्न चिकित्सा और आहार के साथ होते थे, इसका उद्देश्य किसी भी आनुवंशिक या कर्म दोष को दूर करके भ्रूण की रक्षा करना था जो उसके माता-पिता के लिए इसे संचरित कर सकता है। आयुर्वेदिक ग्रंथों में दी गई गर्भवती माताओं द्वारा भोजन और जड़ी-बूटियों सहित जीवनशैली की प्रथाओं के बारे में सावधानीपूर्वक और व्यापक नुस्खे, आगे चलकर, माता और भ्रूण की सुरक्षा के लिए हमारे पूर्वजों द्वारा की गई देखभाल की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसे “गर्भिणी परिचर्या” या एक गर्भवती महिला के लिए जीवनशैली की प्रथाओं और उसके नुस्खे में शामिल हैं: जिसमें मासानुमिका पथ्य (महीने के हिसाब से आहार), गर्भोपाख्यार भाव (ऐसी गतिविधियाँ और पदार्थ जो भ्रूण के लिए हानिकारक हैं), और गर्भस्तपाक द्रव्य (पदार्थ के लिए फायदेमंद) गर्भावस्था का रखरखाव [15] इत्यादि आते है।

उपरोक्त चर्चा से, यह स्पष्ट है कि धर्मिक विश्वदृष्टि में, जन्म देना इतना पुण्य का कार्य माना जाता है कि यह न केवल गृहस्थ के लिए कर्तव्य के रूप में और मानव के रूप में किसी के जीवन को पूरा करने के लिए एक साधन के रूप में निर्धारित किया गया था , बल्कि कई अनुष्ठान बच्चों के सुरक्षित जन्म की सुविधा के लिए चिकित्सा पद्धतियों के रूप में भी तैयार किए गए थे। तैत्तिरीय उपनिषद के शब्दों में “माँ पहला शब्द है और पिता आखिरी। संतान केंद्र बिंदु और उत्पत्ति की मुख्य कड़ी है [16]। ”(श्लोक 1.3.3)

तो, सवाल यह है कि धार्मिक परम्परा जन्म देने को इतना पुण्य का कार्य क्यूँ मानती है?

आइए हम बृहदअरण्यक उपनिषद के श्लोक 1.5.1 पर लौटें, जो पहले भी एक उत्तर के लिए उद्धृत किया गया था। पूरा श्लोक यह कहता है कि “ एक आदमी सोचता है कि वह मरने वाला है, तो वह अपने बेटे से कहता है: तुम ब्रह्म हो, तुम यज्ञ हो और तुम संसार हो।’ पुत्र उसका उत्तर देता है:: मैं ब्रह्म हूँ, मैं यज्ञ हूँ, मैं संसार हूँ। ” श्रुति, पिता के विचारों की व्याख्या करती है: ” मेरे (पिता) ने जो कुछ भी अध्ययन किया है, वह सब ब्रह्मण शब्द में एकीकृत है। मेरे (पिता) द्वारा जो भी यज्ञ किए गए हैं, वे सभी शब्द यज्ञ में एकीकृत हैं। और जो भी दुनिया होनी थी; मेरे (पिता) द्वारा जीते गए शब्द दुनिया में सभी एकीकृत हैं। यह सब वास्तव में पर्याप्त है। वह (पुत्र), यह सब होने के नाते, मुझे इस दुनिया के संबंधों से बचाएगा। ’इसलिए वे एक ऐसे संतान की बात करते हैं जिसे सांसारिक जगत पर विजय के लिए अनुकूल माना जाता है; और इसलिए एक पिता उसे निर्देश देता है। जब एक पिता, जो यह जानता है कि वह इस दुनिया से विदा हो जाता है, तो वह अपने भाषण, मन और महत्वपूर्ण सांस के साथ-साथ अपने बेटे को अभिषिक्त करता है। यदि, किसी चूकवश, किसी भी कर्तव्य को उसके द्वारा पूर्ववत छोड़ दिया गया है, तो पुत्र उसे उस सब से मुक्ति देता है; इसलिए उन्हें पुत्र कहा जाता है। पुत्र के द्वारा पिता इस संसार में रहता है। दिव्य और अमर ज्ञान, मन और महत्वपूर्ण सांस उसमें प्रवेश करते हैं।[17]

उपर्युक्त श्लोक का संदर्भ “संप्रति” या “प्रवेश” नामक अनुष्ठान / समारोह है, जिसमें एक पिता, जो इस दुनिया से जाने से पहले, अपने बेटे को एक गृहस्थ के रूप में अपने सभी कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को सौंपता है। एक गृहस्थ के तीन कर्तव्य होते हैं, जो वास्तव में एक मानव द्वारा अपने मानव जन्म के कारण भुगतान किए जाने वाले तीन प्रकार के कर्म ऋण होते हैं। पहला ऋषियों के प्रति ऋण है, जिन्होंने वेद और ज्ञान की सभी शाखाओं को दुनिया के सामने प्रकट किया है। दूसरा ऋण देवों के प्रति है, जो इस ब्रह्मांड को बनाए रखते हैं, सभी को पोषण प्रदान करते हैं, संतुलन बनाए रखते हैं, और मानव और अन्य जीवन रूपों को विकसित करने की सुविधा प्रदान करते हैं। तीसरा ऋण पितृऋण, जो विशेष वंश के पूर्वज के प्रति हैं और जिन्होंने व्यक्ति को अपने वंश में जन्म देकर भौतिक क्षेत्र में प्रवेश करने का अवसर प्रदान किया है। एक व्यक्ति इन तीन कर्म ऋणों को जन्म देता है क्योंकि उसका इस भौतिक शरीर में जन्म, इन्हीं तीन कारकों द्वारा संभव हुआ। इन ऋणों का भुगतान कैसे किया जाता है, इस प्रश्न का जवाब हम खुद तैत्तिरीय संहिता (6.3.10.5) में पाते हैं, जो यह कहती है कि इन तीन ऋणों का भुगतान ज्ञान की किसी भी शाखा का अध्ययन करके (और इसे आगे बढ़ाकर), यज्ञों (और अन्य धार्मिक कर्तव्यों / स्वधर्म) के द्वारा, , और क्रमशः संतानोत्पत्ति के द्वारा किया जा सकता है, । यही बात भागवत पुराण (10.84.39) में भी दोहराया गया है।

यह इन कर्म ऋणों का भुगतान है, जो उनके अनिवार्य स्वभाव के कारण, एक गृहस्थ के कर्तव्यों के रूप में माना जाता है और जिसका पालन करने से सुख-समृद्धि सुनिश्चित होती है। यह पिता की मृत्यु के बाद, उसके द्वारा बेटे को “संप्रति” के अनुष्ठान के द्वारा सौंपा जाता है। इन सभी कर्तव्यों का सावधानीपूर्वक पालन करना बेटे का कर्तव्य है। इससे, यह स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों को जन्म देने का महत्व इस तथ्य में निहित है कि वे किसी के परिवार और समुदाय के कर्तव्यों और परंपराओं को बनाए रखेंगे। इसका मतलब यह है कि बच्चे सभ्यता की निरंतरता, ज्ञान के संरक्षण और धर्म के उत्थान को सुनिश्चित करेंगे।

अब, बृहदारण्यक उपनिषद के श्लोक में पिता के लिए कहा गया हैं कि जिस पिता ने पुत्र को अपने सभी कर्तव्यों को सौंपा है, वही पिता को इस दुनिया के संबंधों से बचा पाएगा। अर्थात पुत्र, पिता के लिए, उसकी मृत्यु के बाद, इस दुनिया से अगले  लोक(पित्र लोक) की एक सुगम यात्रा सुनिश्चित करेगा। अगर इस भौतिक क्षेत्र के लिए उनके दायित्व अधूरे रह गए, तो दिवंगत पिता के लिए इस तरह की यात्रा  संभव नहीं होगी या कम से कम बाधित होगी । पुत्र पिता के जीवित रहने के दौरान किए गए कर्तव्यों के पालन में किसी भी भूल या पाप से पिता को निर्वासित करके उनकी सुगम यात्रा की सुविधा प्रदान करता है। चूँकि, बेटे ने अब पिता से सभी ज़िम्मेदारियाँ ले ली हैं, वह धर्म के प्रति अपनी ईमानदारी और अपने कर्तव्यों के पालन करके, सभी अशुभों से अपने पिता को मुक्त कर सकता है। एक और तरीका अंतिम संस्कार है, जिसमें संतान मृत्यु के बाद अंतेष्टि करके  इस यात्रा में अपने माता-पिता की मदद करते हैं। अंत्येष्टि संस्कार एक लोक से दूसरे लोक तक के सुगम यात्रा के बनाया गया है।

उपनिषद कहता है कि जब पिता अपने भौतिक शरीर का त्याग करता है, तो वह अपनी वाणी, मन और महत्वपूर्ण प्राण के माध्यम से पुत्र में प्रवेश करता है और फिर उसके माध्यम से इस दुनिया में रहता है। इसी बात को इस तरह से समझा जा सकता है कि कैसे माता-पिता की विरासत और शिक्षाएं उनके बच्चों के माध्यम से ज़िंदा रहती हैं। जैसा कि तैत्तिरीय उपनिषद ने कहा है कि संतान, परिवार के केंद्र बिंदु हैं और इसलिए, उनके माध्यम से माता-पिता मृत्यु के बाद भी जीवित रहते हैं। दूसरा, जैसा कि उपरोक्त श्लोक पर अपने भाष्य में आदि शंकराचार्य कहते हैं, यह केवल एक संदर्भ है कि कैसे एक बार, शरीर को छोड़ दिया जाता है और अन्य तत्वों को उनके सार्वभौमिक पहलुओं के साथ विलय कर दिया जाता है। तीसरा, इसे इस तथ्य के संदर्भ के रूप में समझा जा सकता है कि दिवंगत पिता अपनी भौतिक अस्तित्व की उत्कंठा अपने जीवित संतानों के माध्यम से पूरा करते हैं। वास्तव में, श्राद्ध का पूरा समारोह, जो माता-पिता की मृत्यु के बाद वार्षिक रूप से आयोजित किया जाता है, अपने पूर्वजों के लिए भौतिक दुनिया के कुछ सुखों का अनुभव हेतु बनाया गया है। इसलिए, माता-पिता अपने बच्चों के माध्यम से विद्यमान रहते हैं, क्योंकि बच्चे दिवंगत माता-पिता को उनके माध्यम से और श्राद्ध जैसे समारोहों के माध्यम से भौतिक दुनिया का अनुभव करने की सुविधा प्रदान करते हैं।

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि हालांकि बृहदारण्यक उपनिषद का उद्धृत वचन पिता और पुत्र के बारे में बात करता है, संदेश का सार माता-पिता और बच्चों पर समग्र रूप से लागू होता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पिता द्वारा पुत्र को जो भी कर्तव्य सौंपे जाते हैं, वह पुत्र अपनी पत्नी के साथ मिलकर ही निभा सकता है। पिता ने खुद अपनी पत्नी के साथ मिलकर यह कर्तव्य पूरा किया होगा। चूंकि, स्वभाव से कर्तव्य विवाहित जोड़े के लिए हैं और न केवल पुत्र के लिए, बल्कि उपनिषद के संदेश का सार सभी के लिए लागू होता है।

अगर बच्चों को पालने के महत्व के बारे में बृहदारण्यक उपनिषद की शिक्षाओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया जाए तो वह निम्नलिखित है:

वे परिवार के कर्तव्यों, समुदाय की परंपराओं और पूरी सभ्यता को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं।

वे अपने कर्तव्यों का पालन करके अपने माता-पिता को तीन ऋणों से मुक्त करते हैं, और मृत्यु के बाद अगले लोक जाने की उनकी सहज यात्रा के लिए मार्ग प्रशस्त करने में मदद करते हैं।

दिवंगत माता-पिता (और निहितार्थ, वंश के पिता) बच्चों के माध्यम से जीवित रहते हैं और उन्हें बच्चों द्वारा भौतिक दुनिया का अनुभव करने का मौका मिलता है।

इस कारण बच्चों को बहुत ही नेक और धर्मपूर्ण कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन, जन्म देने का सबसे महत्वपूर्ण कारण जो इसे एक पुण्य कर्म बनाता है, वह यह है कि इसके द्वारा एक दंपति अपने जीवन की भौतिक दुनिया में प्रवेश करता है जो आगे उसे उसके आध्यात्मिक यात्रा की प्रगति में मदद करता है। यह बृहदारण्यक उपनिषद में सूचीबद्ध नहीं है क्योंकि, इसका प्राथमिक उद्देश्य बच्चों को जन्म देने के महत्व पर नहीं बल्कि संप्रत्ति संस्कार पर ध्यान केंद्रित करना था। इस पवित्र कार्य की महत्ता इतनी है कि इस तरह के जन्म लेने वाले जीव को जीवन भर माता-पिता और पूर्वजों को कर्ज चुकाना होगा। तैत्तिरीय उपनिषद (1.11.2) जैसे ग्रंथ इस कारण से माता-पिता की तुलना देवों से करते हैं। मनु स्मृति कहता है कि कैसे एक गृहस्थ जो अपने माता-पिता (और अपने गुरु) की उपेक्षा नहीं करता है वह तीनों लोकों को प्राप्त करेगा और स्वर्ग में प्रवेश करेगा (श्लोक 2.232)। जो एक व्यक्ति अपने माता-पिता (और अपने गुरु) का सम्मान करता है, उसके सभी कर्तव्य पूरे हो जाते हैं, जबकि वह जो अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करता है, उसके सभी कार्य इस कारण से अधूरे रह जाते हैं (2.234)। ये दिखाते हैं कि संतानोत्पत्ति कितनी महान योग्यता है और धर्मिक परंपराओं में क्यूँ गृहस्थ आश्रम के लिए इसे कर्तव्य परायण माना गया है।

अगले लेख में, हम गर्भावस्था में चरणों की जांच करेंगे और गर्भपात पर चर्चा के लिए बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे कि  भ्रूण वास्तव में जीव में कब परिवर्तित होता है?

The article has been translated from English into Hindi by Kripal Gaurav

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