गर्भपात, एक धार्मिक परिप्रेक्ष्य- III:जीव का गर्भस्थ शिशु में प्रवेश कब होता है?

श्रृंखला के भाग-3 में हम गर्भपात पर हो रही किसी भी चर्चा के मुख्य प्रश्न का उत्तर ढूँढने प्रयास करेंगे: जीव का गर्भस्थ शिशु में प्रवेश कब होता है?

इस श्रृंखला के भाग-1 में धार्मिक दृष्टिकोण से गर्भपात के मुद्दे को देखते हुए, हमने इस प्रश्न को हल किया कि जीव कौन है। फिर भाग-2 में, हमने, धर्मिक परंपराओं के अनुसार, जन्म देने की भूमिका की विवेचना की। हमने देखा कि कैसे मानव जीवन को बहुत ही दुर्लभ और महत्वपूर्ण माना जाता है और जन्म देने को एक महान और पुण्य कार्य माना जाता है। अब, श्रृंखला के इस भाग-3 में, हम संक्षेप में एक शिशु के जन्म के विभिन्न चरणों को देखेंगे और एक प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे, जो गर्भपात पर किसी भी चर्चा में केंद्रीय है: जीव का गर्भस्थ शिशु में प्रवेश कब होता है?

शिशु के जन्म के चरण

शिशु के जन्म के चरणों, अवस्था जिसमें जीव गर्भ में प्रवेश करता है और गर्भस्थ शिशु को जीवयुक्त करता है, को समझे बिना गर्भपात पर कोई भी चर्चा संभव नहीं है। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि, यह निर्धारित किये बिना कि गर्भधारण के किस चरण में गर्भस्थ शिशु जीवयुक्त होगा, अर्थात किस स्तर पर गर्भस्थ शिशु स्वयं एक जीव (यानी एक व्यक्ति) बन जाएगा, गर्भपात के धर्मिक निहितार्थ के बारे में कोई विश्लेषण नहीं किया जा सकता है।

आईये हम मार्कंडेय पुराण पर एक नजर डालते हैं और जानते हैं कि शिशु का जन्म कैसे होता है[1]:

“मनुष्य स्त्री-सहवास के समय गर्भ में जो वीर्य स्थापित करता है, वह स्त्री के रज में मिल जाता है| नरक अथवा स्वर्ग से निकलकर आया हुआ जीव उसी रज-वीर्य का आश्रय लेता है| जीव से व्याप्त होने पर वे दोनों बीज सुचारू हो जाते हैं| फिर वे क्रमशः कलल, बुदबुद एवं मांसपिंड के रूप में परिणत होते हैं| जैसे वीर्य से अंकुर उत्पन्न होता है उसी प्रकार मांसपिंड से विभागपूर्वक पाँच अंग प्रकट होते हैं| फिर उन अंगों से अंगुली, नेत्र, नासिका, मुख, कान आदि प्रकट होते हैं| इसी प्रकार ऊँगली आदि से नख आदि की उत्पत्ति होती है| फिर त्वचा पर रोम और मस्तक पर बाल उग आते हैं| जीव के शरीर के वृद्धि के साथ ही स्त्री का गर्भकोष भी बढ़ता है| जैसे नारियल का फल अपने आवरणकोष के साथ ही बढ़ता है उसी प्रकार भ्रूण भी गर्भकोष के साथ ही वृद्धि करता है| उसका मुख नीचे की ओर होता है| दोनों हाथों को घुटनों और पसलियों के नीचे रखकर वह बढ़ता है| हाथ के दोनों अंगूठे दोनों घुटनों के ऊपर होते हैं और उँगलियाँ उनके अग्रभाग में रहती हैं| उन घुटनों के पृष्ठभाग में दोनों आँखें रहती हैं और नासिका उसके मध्य भाग में रहती है| दोनों नितम्ब एडियों पे टिके होते हैं| दोनों बाहें और पिंडलियाँ बाहरी किनारे पर होती हैं| इसी स्थिति में स्त्री के गर्भ में रहने वाला जीव वृद्धि करता है| गर्भस्थ शिशु की नाभि में एक नाल बंधी होती है जिसे अप्यायनी नाडी कहते हैं| इसी प्रकार वह नाल स्त्री के आंत के छिद्र से भी जुडी होती है| स्त्री जो कुछ खाती-पीती है वह उस नाडी के मार्ग से गर्भस्थ शिशु के भी उदार में पहुचता है| उसी से शरीर का पोषण होते रहने से जीव क्रमशः बृद्धि करता है| उस गर्भ में उसे अनेक जन्मों की बातें याद आती हैं, जिससे व्यथित होकर वह इधर उधर फिरता निर्वेद(घृणा, ग्लानि, निराशा) को प्राप्त होता है| वह अपने मन में सोचता है-“ अब इस उदार से छुटकारा पाने पर मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा, बल्कि चेष्टा करूँगा कि मुझे फिर से गर्भ के भीतर न आना पड़े|” सैकड़ों जन्मों के दुःख का स्मरण करके वह इसी प्रकार चिंता करता है| दैवीय प्रेरणा से पूर्व जन्म में उसने जो-जो क्लेश भोगे होते हैं वे सब उसे याद आ जाते हैं| तत्पश्चात कालक्रम से वह अधोमुख जीव जब नवें या दसवें महीने का होता है तब उसका जन्म हो जाता है| गर्भ से निकलते समय वह प्रजापत्य वायु से पीड़ित होता है और मन ही मन दुःख से व्यथित ही रोते हुए गर्भ से बाहर आता है| उदार से निकलने पर असह्य पीड़ा के कारण उसे मूर्छा आ जाती है| फिर वायु के स्पर्श से वह सचेत होता है| तदनंतर भगवन विष्णु की मोहिनी माया उसे अपने वश में कर लेती है| उससे मोहित हो जाने के कारण उसका पूर्व ज्ञान नष्ट हो जाता है| इस प्रकार ज्ञान भ्रष्ट हो जाने पर वह जीव पहले तो बाल्यावस्था को प्राप्त होता है, फिर क्रमशः कुमारावस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्था में प्रवेश करता है (खंड 11, 1-20)|”

एक अपवाद – गर्भावस्था के चरण और विभिन्न चरणों में गर्भस्थ शिशु में होने वाले विकास के बीच संबंध – को छोड़कर ऐसा ही विवरण कृष्ण यजुर्वेद के गर्भ उपनिषद्, जो मुक्तिका संग्रह में उल्लेखित 108 उपनिषदों में से एक है, में मिलता है| यह कहता है[2] : ऋतुकाल में, [पुरुष और महिला के] समागम से, [भ्रूण, एक दिन और] रात तक कलिल(अर्ध-द्रव) अवस्था में होती है; सात दिनों के बाद यह एक बुदबुदा बन जाता है; एक पखवाड़े के बाद, एक ठोस पिंड, और एक महीने में, यह कठोर हो जाता है। दो महीनों में सिर विकसित होता है; तीन महीनों में, पैर बढ़ते हैं। चौथे महीने में, पेट और कूल्हे बनते हैं; पांचवें महीने में, रीढ़ की हड्डी का गठन होता है; छठे महीने में, नाक, आंख और कान बनते हैं। सातवें महीने में, [भ्रूण में] जीव प्रवेश करता है, और आठवें महीने में, यह हर तरह से सम्पूर्ण हो जाता है। यदि पिता का बीज अधिक शक्तिशाली है, तो वह नर बन जाता है; यदि माँ का बीज शक्तिशाली होता है, तो वह मादा बन जाती है। यदि बीज समान बलशाली हैं, तो नपुंसक बन जाता है। यदि [संसेचन के समय] माता-पिता व्याकुल होते हैं, तो बच्चा अंधा, अपंग, कुबड़ा या नाटा हो जाएगा। यदि जीवनदायिनी वायु चारों ओर घूमती है, तो बीज दो भागों में प्रवेश करता है, जिसके परिणामस्वरूप जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं…माँ जो भी खाती–पीती है वह शिशु के नसों और वाहिकाओं से गुजरता है,और उसकी संतुष्टि का श्रोत बनता है। नौवें महीने के दौरान, शरीर के सभी बाह्य लक्षण पूर्णता प्राप्त करते हैं। उसे अपने पिछले जन्मों के अच्छे-बुरे कर्मों की याद आती है। वह सोचता है: मैंने हजारों गर्भ देखे हैं, कई तरह के भोजन किए हैं और कई स्तनपान किये हैं। बार-बार जन्मने और मरने के कारण मैं दु: ख में डूबा हुआ हूं, लेकिन इससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। मेरे अच्छे और बुरे कर्मों के बारे में सोचकर, मैं ही पीड़ित होता हूं, जबकि फल का आनंद लेने वाले शरीर नष्ट हो गए। जब मैं इस गर्भ से बाहर निकलूँगा, मैं सांख्य-योग की शरण लूँगा, जो दुख को नष्ट करता है और मुक्ति प्रदान करता है; जब मैं इस गर्भ से बाहर निकलूँगा, नारायण की शरण लूँगा, जो दुखों को नष्ट करता है और मुक्ति दिलाता है… जब वह योनिद्वार तक पहुंचता है और बड़ी मुश्किल से उससे बाहर निकलता है, तो उसे एक सर्वव्यापी माया द्वारा ग्रस लिया जाता है जिसके कारण वह पूर्व जन्मों को भूल जाता है और अच्छे और बुरे कर्म करता है (श्लोक 3-4)|”

इसी प्रकार के वर्णन विभिन्न स्मृति ग्रंथों और आयुर्वेदिक चिकित्सा ग्रंथों में भी दिए गए हैं। उदाहरण के लिए, याज्ञवल्क्य स्मृति (श्लोक 3.72-81) में कहा गया है कि संभोग के दौरान, सार्वभौमिक आत्मा पञ्चतत्वों में मिलकर पहले महीने में एक द्रव की स्थिति में रहती है, दूसरे महीने में अर्बुद(कुछ कठिन मांसपिंड) बनता है और तीसरे महीने में अंगों एवं इन्द्रियों से युक्त हो जाता है और गति करने लगता है। चौथे महीने में अंग सुचारू हो जाते हैं; पांचवें में रक्त की उत्पत्ति होती है; छठे में बल, रंग, नाखून और रोम उत्पन्न होते हैं; सातवें महीने में मन, चैतन्य, धमनियों, स्नायुओं और सिराओं का विकास होता है; और आठवें महीने में गर्भस्थ शिशु में त्वचा, मांस और स्मृति विकसित होती है।

सुश्रुत संहिता नामक आयुर्वेदिक ग्रंथ कहता है:[3] “गर्भधारण के पहले महीने में (गर्भ में) केवल एक जिलेटिन पदार्थ बनता है; ठंड (कफ), गर्मी (पित्त) और वायु (वायु या तंत्रिका-शक्ति) के प्रभाव से मूलभूत तत्व (महाभूत-वायु, अग्नि, पृथ्वी, जल और ईथर) के अणु दूसरे महीने में संघनित होते है। पिंड जैसे दिखने (वाला अस्पष्ट पदार्थ) (भ्रूण का)पुरुष-लिंग होने को इंगित करता है। एक दीर्घ आकार का मांस पिंड दर्शाता है कि भ्रूण विपरीत लिंग का है; जबकि अर्बुद आकार (सेमल की कली जैसा) किसी भी लिंग की अनुपस्थिति(यानि किन्नर) की आशंका बतात है; तीसरे महीने में, पांच मांसपिंड जैसा उभार उन जगहों पर दिखाई देती हैं, जहां पांच अंगों-दो हाथ, दो पैर और सिर- की उत्पत्ति होती है और शरीर के अंग अत्यंत छोटे अंकुरण के आकार में बनते हैं। चौथे महीने में (भ्रूण के शरीर के) सभी अवयव और अंग अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं और हृदय के गठन के कारण गर्भस्थ शिशु चेतनायुक्त हो जाता है। चूंकि हृदय चेतना का स्थान है, इसलिए जैसे ही हृदय मजबूत होता है, वह चेतनायुक्त हो जाता है और इसलिए यह स्वाद, गंध आदि की चीजों (अपनी मां की इच्छाओं के माध्यम से)के लिए अपनी इच्छा व्यक्त करता है। उस काल में गर्भवती स्त्री को दौहृद कहा जाता है, जिनकी इच्छाएँ और आकांक्षाओं का सम्मान और पूर्ति नहीं होने पर एक लकवाग्रस्त, कूबड़ युक्त, टेढ़े-मेढ़े, लंगड़े, बौने, दोष-रहित, और अंधा शिशु जन्म ले सकता है। इसलिए, प्रसूति की इच्छाओं को संतुष्ट करना चाहिए, ताकि एक मजबूत, पराक्रमी और लंबी आयु वाला संतान का जन्म हो (शरीर स्थान, अध्याय-3)।“ ग्रंथ में संस्कृत शब्द “हृदय” के उपयोग का सन्दर्भ व्यक्तित्व के केंद्र से है न कि हृदय नामक शारीरिक अंग से। सुश्रुत आगे कहते हैं: “पांचवें महीने में गर्भस्थ शिशु में मन का उद्गम होता है और वह अपने उप-चेतन अस्तित्व की सुसुप्ति से जागता है। छठे महीने में संज्ञान(बुद्धी) का अविर्भाव होता है। फिर सातवें महीने में सभी अंग और उपांग।”

उपनिषदों से लेकर आयुर्वेदिक चिकित्सा ग्रंथों की एक विस्तृत श्रृंखला के व्यापक उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि धार्मिक परंपरा में शिशु के जन्म की प्रक्रिया का बहुत व्यापक और गहन ज्ञान था। इसके अलावा, ग्रंथों में प्रस्तुत भ्रूण विकास के कालक्रम आधुनिक प्रसूति संबंधी अनुसंधान से जुड़े कालक्रम से कमोबेश मेल खाता है।[4]  उदाहरण के लिए, आधुनिक चिकित्सा ने यह पता लगाया है कि पहले महीने के दौरान, तरल पदार्थ से भरी एक भ्रूणावरण थैली आघात से भ्रूण की रक्षा करता है। यह गर्भ उपनिषद, सुश्रुत संहिता और ऊपर उद्धृत अन्य ग्रंथों में दिए गए विवरणों से मेल खाती है। इसी प्रकार, भ्रूण का सिर दूसरे महीने के दौरान विकास का प्रमुख केंद्र हो जाता है और तीसरे महीने के दौरान हाथों और पैरों का विकास होना, जो आधुनिक स्त्री रोग द्वारा प्रमाणित है, उपरोक्त उद्धृत ग्रंथों में दिए गए विवरणों से मेल खाता है। तीसरे महीने का गर्भस्थ शिशु बहुत छोटा होता है और यह उत्तरोत्तर बढ़ता है, इसे आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा दोनों के द्वारा सत्यापित किया जा सकता है। आधुनिक चिकित्सा का कहना है कि चौथे महीने में जननांग पूरी तरह से बन जाते हैं और अलग से पहचाने जा सकते हैं। गर्भ उपनिषद स्पष्ट कहता है कि पेट और कूल्हे चौथे महीने में विकसित होते हैं। यहां तक ​​कि अन्य ग्रंथों भी कहते हैं कि चौथे महीने के दौरान सभी अंग, संभवतः जननांग क्षेत्र सहित, अधिक मजबूत हो जाते हैं। शमंतकमणि नरेन्द्रन सही कहते हैं: “उनमें(आधुनिक चिकित्सा) और विभिन्न चिकित्सा ग्रंथों (अर्थात वेदों, उपनिषदों और आयुर्वेद के ग्रंथों) में पढ़कर आश्चर्य होता है कि प्राचीन हिंदुओं के जैविक विकास, प्रजनन, उत्पादन, विरूपण और सहज उत्थान के बारे में विचार, प्रथमदृष्ट्या प्रसूतिशास्त्र के आधुनिक साहित्य से उधार लिया हुआ प्रतीत होता है।[5] इस प्रकार, हम पाते हैं कि हिंदुओं के धार्मिक और चिकित्सा ग्रंथों में बच्चे के जन्म के जैविक चरणों के बारे कमोबेश सटीक जानकारी है।

जीव गर्भस्थ शिशु में कब प्रवेश करता है?

अब मुख्य प्रश्न पर आते हैं कि जीव गर्भस्थ शिशु में कब प्रवेश करता है यानि चूँकि हम गर्भस्थ शिशु को एक जीवित व्यक्ति मानते हैं, हमें इस बारे में गहन विश्लेषण करना चाहिए। शुरुआत में ही ध्यान देने वाली बात यह है कि यह एक बहुत ही जटिल प्रश्न है और इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, जैविक दृष्टिकोण से, गर्भाधान से लेकर शिशु के जन्म तक एक सरल रैखिक प्रक्रिया है जिसमें कमोबेश समान अवस्थाएँ होती हैं, जबकि जीव का गर्भस्थ शिशु के साथ आत्म-पहचान करना और गर्भस्थ शिशु को स्वयं के भौतिक शरीर के रूप में पहचान की गैर-जैविक सूक्ष्म प्रक्रिया बहुत अधिक जटिल है।

जीव के गर्भस्थ शिशु में प्रवेशकाल के बारे में, इस बात पर प्रकाश डालते हुए कि यह जीव की व्यक्तिगत और माता-पिता की स्थिति पर निर्भर करता है, मदर(मीरा अल्फ़ासा) ने लिखा था: “यह, जो आत्मा पुनर्जन्म लेना चाहती है, उसके विकास की स्थिति पर निर्भर करता है। – हम यहाँ “आत्मा” शब्द का प्रयोग मनोवैज्ञानिक जीव के रूप में कर रहे हैं, जहाँ मनोवैज्ञानिक जीव का मतलब – उसके विकास की स्थिति, उस परिवेश जिसमें वह अवतार लेना चाहता है, उद्देश्य जो वह पूरा करना चाहता है, आदि पर निर्भर करता है – यह कई अलग-अलग स्थितियां पैदा करता है… यह बहुत हद तक माता-पिता की चेतना की स्थिति पर निर्भर करता है। यह बिना कहे समझने वाली बात है कि एक सचेत आकांक्षा के साथ, एक आध्यात्मिक उत्कंठा से अदृश्य जगत को आह्वान कर, सोंच-समझकर गर्भ धारण करने में, की अपेक्षा दुर्घटनावश, बिना इरादे के और कभी-कभी तो इरादे के विपरीत गर्भ धारण करने में बृहत् अंतर है.. [6]” इस प्रकार, गर्भस्थ शिशु में एक जीव के प्रवेश का सही समय जीव और माता-पिता की धर्मिक और आध्यात्मिक स्थिति से प्रभावित हो सकता है, इसलिए प्रवेश के समय में बहुत भिन्नताएं हो सकती हैं। हालांकि, विभिन्न श्रुतियों, स्मृतियों और आयुर्वेदिक ग्रंथों का सावधानीपूर्वक अध्ययन से पता चलता है कि इन विविधताओं के बावजूद, गर्भस्थ शिशु में जीव के प्रवेश की प्रक्रिया में एक सामान्य प्रतिमान(pattern) देखा जा सकता है और हम इसे अगले कुछ परिच्छेद(paragraph) में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। ।

एक जीव की गर्भ में यात्रा को समझने के लिए, पहले इस बात की समझ होनी चाहिए कि जीव के स्थूल शरीर के मरने के बाद क्या होता है और वर्तमान शरीर को त्यागने के बाद और नए शरीर में जन्म लेने से पहले जीव को क्या यात्रा करनी पड़ती है? वर्तमान चर्चा को हम वैसे जीवों द्वारा की गयी यात्रा तक सीमित रखेंगे, जो अपने शरीर को त्यागने से पहले मनुष्य थे।

हम पहले ही देख चुके हैं कि कैसे, वे जीव जो मुख्य रूप से सात्विक हैं और जिन्होंने अपने जीवन में मुख्य रूप से धर्मिक कर्म किए हैं, ईश्वरत्व प्राप्त करेंगे और स्वर्ग को प्राप्त होंगे(मनु स्मृति 12.20 और 40), जबकि वे, जो मुख्य रूप से राजसिक थे और जिनके कर्म समान रूप से धर्म और अधर्म की ओर थे, पितृ लोक में समय व्यतीत करने के बाद मानव जीवन प्राप्त करेंगे(मनु स्मृति 12.40)। और फिर वे जो मुख्य रूप से तामसिक थे और ज्यादातर अधार्मिक कार्य करते थे, अपने सूक्ष्म शरीर में रहकर नरक[7] (मनुस्मृति 12.54, भागवत पुराण 5.26.3) के अलग-अलग भाग में यातनाएं झेलेंगे(मनु स्मृति 12.21) और विभिन्न गैर-मानव प्राणियों (मनु स्मृति 12.40) के रूप में जन्म लेने के लिए वापस लौटेंगे। नरक-प्राप्ति के बारे में भागवत पुराण में कहा गया है कि जो जीव वहां जाते हैं वे भिन्न-भिन्न प्रकार के किये गए अधर्म के अनुसार दंडित होते हैं (5.26.6), और फिर जीवों को विभिन्न प्रकार के दंड देने के लिए अट्ठाईस अलग-अलग प्रकार के नरकों को सूचीबद्ध किया है। जीव,जिसने अधर्म किया है, के नरक से लौटने के बाद मिले जीवन के बारे में मनुस्मृति (12.9) में कहा गया है कि वे मनुष्य जो शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से अधर्म करते हैं, जैसे चोरी, हिंसा, व्यभिचार आदि ,को पेड़-पौधों के रूप में जन्म लेकर दुःख भोगना पड़ता है जिसमें उनके शारीरिक गति की सीमाएं होती हैं; जो लोग वचन के माध्यम से अधर्म करते हैं, जैसे झूठ बोलना आदि, वे विभिन्न जानवरों और पक्षियों के रूप में जन्म लेते हैं, जो गति तो कर सकते हैं, लेकिन बोल नहीं सकते हैं और इसलिए बोल पाने की सीमाओं के कारण पीड़ित हैं; और जो लोग दूसरों के नुकसान की कामना करने, दूसरे के धन की इच्छा रखने आदि के माध्यम से अधर्म का पालन करते हैं, वे समाज के निचले वर्गों के मनुष्यों के रूप में जन्म लेते हैं और मानसिक पीड़ा झेलते हैं।

इस प्रकार,जीवों के लिए हिंदू धर्मग्रंथ में “देवायन”, “पित्रायन” और “तीसरा मार्ग” के रूप में उनके भौतिक मानव शरीर की मृत्यु के बाद की यात्रा के तीन संभावित माध्यम के बारे में बताया गया है। देवयान मार्ग वे जीव चुनते हैं, जिन्हें हमने ऊपर लेख में प्रकृति द्वारा सात्विक और उपासना एवं ध्यान (ब्राह्मणनायक उपनिषद 1.5.16) करने वाला वर्णन किया है। जीव विहान क्षेत्र में यात्रा कर, वहां से फिर दिन, दिन से महीने के शुक्ल-पक्ष में, वहां से छह महीने तक, जब सूर्य उत्तर की ओर बढ़ता है, उत्तारायन में, वहां से वर्ष तक या देवों तक(देवलोक या स्वर्ग) की दुनिया में, वहाँ से सूर्य तक, फिर चंद्रमा तक, वहाँ से बिजली और अंत में हिरण्यगर्भ (छंदोग्य उपनिषद 5.10.1-2, वृहदारंयक उपनिषद 6.2.15)तक की यात्रा करता है। जिन्होंने अपनी उपासना और कर्म के दायित्वों (अर्थात स्वधर्म) को पूरा कर लिया है, वे, भौतिक सांसारिक क्षेत्र में लौटने के बिना (ईशा उपनिषद पद 11), स्थाई रूप से हिरण्यगर्भ को प्राप्त होते हैं। हालांकि, जो लोग अभी तक उपासना में पक्के नहीं हुए हैं और जिन्होंने स्व-धर्म-कर्म अनुष्ठान की उपेक्षा करते हुए महज उपासना का अभ्यास किया है, वे देवलोक से आगे नहीं जा सकते और वापस भौतिक जगत में लौट आते हैं और उपासना का फल समाप्त होने के बाद मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं (ईशा उपनिषद काव्य 1)। यहां, यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि, सूर्य या चंद्रमा जैसे शब्द भौतिक सूर्य या चंद्रमा नहीं हैं, बल्कि सूक्ष्म लोकों की ओर इंगित करते हैं। समयावधि से संबंधित प्रत्येक शब्द का अलग-अलग स्थानों में समय की अवधि और सांसारिक जगत में समय की अवधि के साथ उनके संबंध के विशिष्ट संदर्भ में है। इस प्रकार, जीव अपने सूक्ष्म शरीर में देवायन की यात्रा करते हुए हिरण्यगर्भ में विलीन हो जाता है कि फिर कभी वापस नहीं आता या शायद स्वर्ग तक पहुंचता है और अपने उपासना के फल के ख़त्म होने के बाद सांसारिक जगत में वापस लौट आता है।

पित्रायण का मार्ग वे जीव चुनते हैं जो, हमने ऊपर देखा, प्रकृति में राजसिक हैं और जिन्होंने कर्म अनुष्ठान जैसे यज्ञ, दान और अन्य धार्मिक कार्य किए हैं (बृहदारण्यक उपनिषद 1.5.16, छान्दोग्य उपनिषद 5.10.3)। इस यात्रा में, जीव पहले धुएं में,धुंए से रात में, रात के अंधेरे से कृष्णपक्ष में, वहां से दक्षिणायन में (छह महीने के दौरान सूर्य जब दक्षिण की ओर बढ़ता है), वहां से पूर्वजों के लोक अर्थात पितृलोक में, और वहाँ से आकाश और अंत में चंद्रमा में (चन्द्रोदय उपनिषद 5.10.3-4, बृहदारण्यक उपनिषद 6.2.16)। पुण्य कर्म के फल को भोगने के पश्चात, पितृलोक और चंद्रमा में ले गए जीव वापस लौटते हैं और मानव योनि में जन्म लेते हैं। तीसरा मार्ग तमासिक प्रकृति के कारण विभिन्न नरकों और जीवों के विभिन्न योनियों, जानवरों और पक्षियों के रूप में जन्म की यात्रा को संदर्भित करता है। इस तरह के जीवों को मानव जीवन मिलने में बहुत लंबा समय लग सकता है और विभिन्न जीवों के रूप में सैकड़ों या हजारों जन्म और मृत्यु चक्र से गुजरना पड़ सकता है। इस प्रकार, सभी जीव, सिवाय उन जीवों के, जो देवयान के माध्यम से यात्रा करके हिरण्यनगर में विलीन हो जाते हैं, चाहे वे देवायन, पित्रायण यात्रा या तीसरे मार्ग से नरक यात्रा कर चुके हों, अंततः मानव जन्म लेने के लिए वापस लौटते हैं ।

तो, अगला सवाल यह है कि मानव जीवन में उनकी वापसी यात्रा का मार्ग क्या है? पितृलोक और चंद्रमा को प्राप्त होने वालों की वापसी यात्रा का मार्ग बताते हुए, उपनिषदों का कहना है कि अच्छे कर्मों के फल भोगने के बाद, वे उसी रास्ते से लौटते हैं, जैसे वे गए थे (छान्दोग्य उपनिषद 5.10.5), अर्थात आकाश से हवा, हवा से धुएँ से, धुएँ से धुंध, वहाँ से बादल और बारिश, बारिश से वे विभिन्न खाद्य पदार्थों जैसे चावल, जौ, जड़ी-बूटियों, पेड़ों, आदि में पैदा होते हैं, वहाँ से वे भोजन के रूप में नर-मनुष्य में प्रवेश करते हैं और फिर वीर्य का रूप लेते हैं, फिर वे मादा-मनुष्य में प्रवेश करते हैं, अंत में मानव के रूप में जन्म लेते हैं (छान्दोग्य उपनिषद 5.10.5, बृहदारण्यक उपनिषद 6.2.16)। हालांकि, मानव गर्भ में जीव की इस वापसी यात्रा का वर्णन उन लोगों के लिए किया जाता है जो पितृ-लोक में गए थे, और यहाँ उन जीवों के लिए यह मान लेना सुरक्षित भी है जो देवलोक को प्राप्त हुए थे, लेकिन जिन्होने स्वधर्म पालन नही किया हो, उनके लिए भी लौटने का समान मार्ग है| क्योंकि, छांदोग्य उपनिषद (5.10.5) पित्रायण के संबंध में स्पष्ट रूप से कहता है, “वे उसी रास्ते से लौटते हैं”, जो आसानी से देवायन पर भी लागू हो सकता है। लेकिन, फिर यह भी संभव है कि देवलोक से जीव, सात्विक और आध्यात्मिक रूप से विकसित होने के कारण, गर्भाधान के समय सीधे गर्भ में प्रवेश कर सकता है, जब पुरुष शुक्राणु, पुराण के अनुसार, महिला अंडे के साथ निषेचित होता है( 11, 1)। इसी तरह, तीसरे मार्ग के अनुसार, जीव जिन्होंने नरकों को प्राप्त किया और बाद में विभिन्न प्राणियों के रूप में जन्म लिया, गर्भधारण के समय गर्भ में सीधे प्रवेश करते हैं (मार्कंडेय पुराण 11, 1)। इसलिए, चाहे वह बारिश, भोजन और वीर्यमार्ग के माध्यम से हो, या गर्भाधान के दौरान वीर्य के साथ सीधे जुडाव के माध्यम से, जीव माता-पिता के साथ ऋणबंध और स्वयं के प्रारब्ध कर्म के कारण गर्भधारण के क्षण में मौजूद होते हैं। लेकिन, जीव की चेतन स्थिति, उनकी वापसी यात्रा के भिन्न-भिन्न माध्यमों के कारण भिन्न-भिन्न होती है। आदि शंकराचार्य ने चंद्रदेव उपनिषद श्लोक 5.10.6 में अपने भाष्य में कहा है कि पितृलोक से लौटने वाले जीव अचेत अवस्था में आकाश, वायु, धुंध, बादल, वर्षा, भोजन और वीर्य के विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरते हैं और उनमें उनके जन्म का माध्यम बनने वालों(यानी होने वाले माता-पिता) के साथ उनके संबंध के बारे में कोई चेतना नहीं होती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पितृलोक में अच्छे कार्यों के फल भोगने के बाद, पितृलोक में उत्पन्न उनका सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाता है और वे पितृलोक से गर्भ में अपनी यात्रा के दौरान अचेतन अवस्था में प्रवेश करते हैं और बाद में गर्भस्थ शिशु के रूप में विकसित होते हुए अपनी चेतना को पुनः प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि तीसरे मार्ग में जीव अपने पिछले अधार्मिक कर्मों के कारण पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेते हैं, क्योंकि अपने पैदा होते हैं और पौधों, जानवरों आदि के रूप में कई बार जन्म लेकर चेतन रहकर पीड़ित होते हैं। जब वे अंततः वीर्य में प्रवेश करने और अपने प्रारब्ध कर्मों के परिणामस्वरूप गर्भ में संलग्न होने में सफल होते हैं, तब भी उनमें सीमित चेतना होती है, जिससे उन्हें इस अवस्था में अत्यधिक कष्ट झेलना पड़ता है, लेकिन गर्भस्थ शिशु के विकास को प्रभावित करने के लिए उनमें शक्ति नहीं होती। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसे जीव पूर्ण अर्थ में ‘सचेत’ नहीं होते हैं। वे केवल सीमित रूप से इस अर्थ में सचेत हैं कि वे दुख का अनुभव कर सकते हैं। इस प्रकार, पितृलोक से लौटने वाले जीव पृथ्वी लोक में अपनी वापसी यात्रा पर अचेतन रहते हैं और बारिश, फसलों आदि जैसे विभिन्न योनियों से बिना किसी दर्द का अनुभव किए गुजरते हैं, और गर्भाधान और शुक्राणु और अंडे के मिलन के दौरान भी अचेतन रहते हैं, जबकि नरक से वापस लौटते वाला जीव अर्ध-चेतन अवस्था में विभिन्न अधम तामसिक योनियों से गुजरता हुआ मानव-गर्भ में भी अर्ध-चेतन अवस्था में प्रवेश करता है और साथ ही साथ स्वयं की सीमित अवस्था के कारण उसे भारी कष्ट का अनुभव होता है। दूसरी ओर, देवलोक से लौटने वाले, ज्यादातर पितृलोक से लौटने वाले अपने समकक्षों की तरह अचेतन रहते हैं और भोजन के रास्ते से गर्भ में प्रवेश करते हैं और अचेतन अवस्था में ही, या कुछ अपवाद रूप में बिना किसी कष्ट झेले पूरी तरह से सचेतन रहते हैं, और गर्भ में गर्भस्थ शिशु से जुड़े रहकर इसके विकास की पूरी प्रक्रिया को निर्देशित और प्रभावित करते हैं। इस तरह के दुर्लभ मामलों के बारे में बताते हुए, मदर (मीरा अल्फ़ासा) कहती है: “यदि गर्भाधान के समय अवतरण होता है, तो होने वाले बच्चे के पूरे गठन का निर्देशन और संचालन उस चेतना द्वारा किया जाता है जो अवतार लेने जा रही है: तत्वों का चुनाव, किसी विशिष्ट पदार्थ के प्रति झुकाव – शक्तियों का चुनाव और यहां तक ​​कि उपभोग होने वाले पदार्थ का चुनाव। शुरू से ही एक चयन प्रक्रिया ज़ारी रहती है। और यह स्वाभाविक रूप से शरीर के विकास के लिए पूरी तरह से विशेष स्थिति का निर्माण करता है, जो जन्म के पहले से ही काफी विकसित, उन्नत और सम्यक हो जाता है। मुझे कहना होगा कि यह काफी, काफी असाधारण है; लेकिन फिर भी ऐसा होता है [8]| इस तरह के दुर्लभ मामलों को छोड़कर, गर्भ में प्रवेश करने वाले जीव या तो अचेतन होते हैं या अर्ध-चेतन अवस्था में होते हैं और इसलिए उन्हें बौद्ध एक ग्रंथों में “अंतराभाव” या मध्यवर्ती जीव कहा गया है [9]|

पितृलोक आदि विभिन्न लोकों से होते हुए माता के गर्भ में प्रवेश करने, स्वयं को गर्भ में निर्मित पहले युग्मज और फिर भ्रूण से योग करने की जीव की यह यात्रा, जीव के मानव जीवन पाने की चेष्टा का पहला और सबसे लम्बा स्तर है। लेकिन, किसी भी मामले में, जीव के गर्भ में प्रवेश करने और बाद में भ्रूण रूप में विकसित होने को जीव द्वारा भ्रूण को सजीव करने के रूप में नहीं देखा जा सकता, यानि भले ही जीव का भ्रूण के साथ योग हो जाता है पर यह भ्रूण को सजीव नहीं करता। इस स्तर पर, भ्रूण अभी भी एक भौतिक पदार्थ है, एक जीव नहीं। गर्भाधान के ठीक बाद भ्रूण में जीव के प्रवेश की तुलना एक रूह द्वारा शरीर पर अधिकार से की जा सकती है, जो शरीर पर कब्ज़ा करने के बावजूद इसे जीवंत नहीं बनाता, शरीर को सही अर्थों में जीवित नहीं करता है। इस तुलना पर आपत्ति जताते हुए कहा जा सकता है कि रूह अधिकतर किसी इंसान पर बलपूर्वक अधिकार करती है और यहाँ ऐसा नहीं है| यह सच है। उदाहरण का उद्देश्य केवल एक बिंदु को निर्दिष्ट करना है कि: शुरुआत में भ्रूण के भीतर जीव की उपस्थिति गर्भावस्था के उस चरण में चेतना और जीवन नहीं प्रदान करती है। भ्रूण अब भी केवल एक भौतिक पदार्थ होता है जो हो सकता है बाद की अवस्था में चेतना को प्रकट करने के लिए उचित स्थान बन जाये। इस प्रकार, गर्भावस्था की शुरुआत में, भ्रूण एक व्यक्ति नहीं है, अभी तक एक मनुष्य नहीं है। याज्ञवल्क्य स्मृति ने सही टिप्पणी किया है, “पञ्च तत्वों के साथ मिलकर आत्मा पहले महीने के दौरान द्रव स्थिति में रहती है” अर्थात आत्मा गर्भाधान के बाद अन्य तत्वों से मिलन के बाद भी अलग रहती है।

जीवा की यात्रा में दूसरा चरण गर्भावस्था के चौथे महीने में आता है। चौथे महीने के दौरान, गर्भस्थ शिशु के पेट और कूल्हों (और इसलिए जननांगों) का निर्माण होता है [10] और अन्य सभी अंग भी सुचारू और शक्तिशाली बनते हैं [11], गर्भस्थ शिशु में ह्रदय प्रकट होता है जो उसे चैतन्य करता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सुश्रुत संहिता (शरीर स्थान, अध्याय 3) में कहा गया है, हृदय चेतना का स्थान है और जैसे ही हृदय प्रकट होता है, गर्भस्थ शिशु चेतनायुक्त हो जाता है। गर्भस्थ शिशु में ह्रदय की यह अभिव्यक्ति और कुछ नहीं बल्कि वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा जीव सही मायने में गर्भस्थ शिशु में प्रवेश करता है, उसे जीवित करता है और अपना स्थूल-शरीर यानि भौतिक शरीर बनाता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यहाँ “हृदय” शब्द भौतिक हृदय को संदर्भित नहीं करता है, जैसा कि अक्सर समझा जाता है। यह चेतना के स्थान के लिए एक विशिष्ट संदर्भ है, जो एक व्यक्ति में व्यक्तित्व का केंद्र है। यह “व्यक्तित्व का केंद्र” है, जिसे भगवद गीता में भी बताया गया है, जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह सभी प्राणियों के ह्रदय में विराजमान हैं या जब उपनिषद अंगुष्ठमात्र-पुरुष का ह्रदय में निवास होने की बात करते हैं। इस प्रकार, चौथे महीने में, जीव गर्भस्थ शिशु के हृदय के रूप में प्रकट होता है और उसे जीवंत करता है। नतीजतन, स्वाद, गंध आदि की चीजों के लिए जीव की इच्छाएं मां की लालसाओं के रूप में प्रकट होती हैं [12] और सुश्रुत संहिता (शरीर स्थान, अध्याय 3) गर्भवती मां को ऐसी स्थिति में “दौहृदी”-दो हृदय वाले के रूप में वर्णित करता है। यह आगे कहता है कि ऐसी गर्भवती माताओं की इच्छाओं और लालसाओं को पूरा किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने, जो वास्तव में ह्रदययुक्त गर्भस्थ शिशु की इच्छाएं हैं, के परिणामस्वरूप विकलांग बच्चे का जन्म हो सकता है। लेकिन, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, इस स्तर पर, गर्भस्थ शिशु, हालांकि चेतनायुक्त होता है, मानस (मन) और बुद्धि (बुद्धि) जैसे संकायों के अविकसित होने के कारण अभी भी अचेतन अवस्था में होता है। दूसरे शब्दों में, महज एक पदार्थ से ह्रदय, मनस और बुद्धि से युक्त जीव में परिवर्तित होने वाली गर्भस्थ शिशु की प्रक्रिया चौथे महीने के अंत तक अधूरी ही रहती है। साथ-ही-साथ यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि चरक संहिता गर्भावस्था के तीसरे महीने [13] में ” दौहृदी ” की इस स्थिति को इंगित करती है| यह दर्शाता है कि विकास का सही समय भिन्न-भिन्न शिशुओं में कैसे कुछ दिनों का अंतराल में हो सकता है। लेकिन, हमारे उद्देश्य के लिए, हम चौथे महीने को औसत समय अवधि के रूप में ले सकते हैं, क्योंकि आधुनिक प्रसूतिशास्र भी इस बात को स्वीकार करता है कि जननांग का बाह्य भाग चौथे महीने [14] में पूरी तरह से विकसित और अलग पहचान वाला हो जाता है और जैसा कि हमने ऊपर देखा, जननांग और अन्य अंगों के अच्छी तरह से विकसित हो जाने के बाद ही, गर्भस्थ शिशु में ह्रदय का निवास होता है। इस प्रकार, गर्भावस्था के चौथे महीने के दौरान गर्भस्थ शिशु में ह्रदय का विकास मनुष्य योनि में जीव की यात्रा का दूसरा चरण होता है और गर्भस्थ शिशु के एक भौतिक पदार्थ से एक पूर्ण व्यक्ति(जीव) में बदलने की प्रक्रिया की शुरुआत को चिह्नित करता है। इसके बारे में एक और प्रमाण पुंसवन संस्कार से मिलता है। इसका शाब्दिक अर्थ है “एक प्राणी के त्वरित विकास का समारोह” या “संतान उत्पन्न करने वाला” और दर्शाता है कि यह गर्भस्थ शिशु के ह्रदय में प्रवेश कर स्थापित होने की प्रक्रिया है और इसके बाद मनस का विकास होता है, जिसके परिणामस्वरूप गर्भस्थ शिशु का विकास तेज गति से होने लगता है। इस कारण से यह आमतौर पर गर्भावस्था दृष्टव्य होने के बाद और शिशु के तीव्र विकास से ठीक पहले, गर्भावस्था के दूसरे या तीसरे महीने में किया जाता है (पारस्कर गृह्यसूत्र 1.14.1-2, विष्णु स्मृति 27.2)।

इसके बाद, पांचवें महीने में, जो गर्भस्थ शिशु चेतनायुक्त हो गया है, में मन (मनस) का विकास होगा और पहली बार चैतन्य होगा, जैसा कि सुश्रुत संहिता (शरीर स्थान, अध्याय 3) कहता है: “पांचवें महीने में गर्भस्थ शिशु मन धारण करता है और अपने उप-चेतन अस्तित्व की निद्रा से जागता है।” इसके परिणामस्वरूप गर्भ के अंदर गर्भस्थ शिशु की पहली गति होती है, जिसे आधुनिक प्रसूतिशास्र में “क्विकनिंग” कहा जाता है। इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि सूक्ष्म स्तर पर गर्भस्थ शिशु का आंतरिक विकास, हालांकि आंखों और आधुनिक तकनीक के लिए अदृश्य है, उन बाहरी लक्षणों से प्रत्यक्ष हो सकता हैं जो वे प्रकट करते हैं। जिस प्रकार गर्भस्थ शिशु में ह्रदय की अभिव्यक्ति माँ में विशिष्ट लालसाओं के विकास से देखी जा सकती है, वैसे ही मनस की उपस्थिति ”क्विकनिंग” की प्रक्रिया से प्रत्यक्ष हो सकता है। पाँचवें महीने में मनस का यह गठन जीव की यात्रा में तीसरे चरण होता है। इसके बाद, छठे महीने में, गर्भस्थ शिशु में बुद्धी-विवेक के संकाय का विकास होता है[15], जो इसकी यात्रा का चौथा चरण होता है और सातवें महीने में, गर्भस्थ शिशु पूरी तरह से जीवयुक्त हो जाता है [16] और यह जीव नौवें या दसवें महीने में जन्म लेता है। कुछ सूत्रों के अनुसार, गर्भस्थ शिशु छठे महीने तक ही पूर्ण रूप से जीवयुक्त हो जाता है [17]।

संक्षेप में, जीव की जन्म यात्रा में निम्नलिखित चरण होते हैं:

चरण 1: एक जीव जो या तो पितृलोक या देवलोक में है, कर्म के फल, जिसके कारण वह उस लोक को प्राप्त हुआ है, को भोगने के बाद, फिर से मानव रूप में जन्म लेने के लिए लौटता है। वापसी यात्रा के दौरान वह आकाश, वायु, धुंध, बादल, फसल, आदि जैसे विभिन्न चरणों से गुजरता है और जब अनुकूल समय आता है तब अंत में पिता में प्रवेश करता है, जिसके साथ इसका ऋण-बंध होता है। इस पूरी यात्रा के दौरान, जीव अचेतन रहता है और इसलिए बादल, फसल आदि के चरणों से गुजरने के दौरान कष्ट नहीं भोगता। दूसरी ओर, जीव जो अपने अधार्मिक कर्मों के कारण नरक पाते हैं और बाद में पुनः-पुनः पौधों, जानवरों और अन्य छोटे जीव के रूप में बहुत लंबी अवधि के लिए, अर्ध-चेतन या एक सीमित-चेतन अवस्था में इन सभी चरणों से गुजरते हैं, जिसमें वे अपने अधार्मिक कर्मों के कारण सोचने की स्वतंत्रता के बिना केवल दुख भोग सकते हैं, और जब वे मानव जन्म लेने के लिए आध्यात्मिक रूप से पर्याप्त विकसित होते हैं, तो वे एक आंशिक रूप से सचेत अवस्था में, जन्म की पूरी प्रक्रिया में भारी पीड़ा का अनुभव करते हुए पिता में प्रवेश करते हैं। यह चरण यात्रा की सबसे लंबी अवस्था होती है और जीव के प्रारब्ध के अनुसार, यह कुछ दिनों या हफ्तों से लेकर कई वर्षों तक ज़ारी रह सकती है। लेकिन, निश्चित ही, चूंकि अधिकांश जीव अचेतन या आंशिक रूप से सचेत अवस्था में होते हैं, इसलिए वे इसे याद नहीं रख पाते हैं।

चरण 2: गर्भाधान के दौरान मां के गर्भ में प्रवेश करने के बाद, जीवा स्वयं का युग्मज और फिर भ्रूण से योग कर लेता है पर इसे जीवंत नहीं करता। जब भ्रूण धीरे-धीरे जैविक रूप से विकसित होता है, जीव तब तक इंतजार करता है जब तक कि सभी अंग और जननांग पर्याप्त रूप से विकसित और सुचारू नहीं हो जाते हैं। फिर चौथे महीने में, गर्भस्थ शिशु गर्भस्थ शिशु में प्रवेश करता है और चेतना के स्थान के रूप में प्रकट होता है जिसे “हृदय” कहा जाता है। यह जीव द्वारा गर्भस्थ शिशु को जीवंत करने और इसे अपने स्थूल शरीर के रूप में स्वीकार करने की प्रक्रिया का आरम्भ होता है| इस प्रकार गर्भस्थ शिशु को मात्र एक भौतिक पदार्थ से स्वयं एक जीव में बदल देता है।

हालांकि, गर्भस्थ शिशु में ह्रदय का प्रकटीकरण चौथे महीने में होता है, जिससे जीव की भावनाएं और इच्छाएं मां की इच्छाओं और मनोदशाओं के रूप में प्रकट होती हैं, गर्भस्थ शिशु या जीव अभी भी मनस और बुद्धि के संकायों का पूर्ण विकास न होने के कारण अचेतन ही रहता है।

चरण 3: जीव / गर्भस्थ शिशु के चैतन्य होने के पहला लक्षण, मनस के बनने के बाद, पांचवें महीने में प्रकट होता हैं। इससे गर्भ में पल रहा शिशु गति करता है जिसे “क्विकनिंग” कहा जाता है, जिसे मां द्वारा भी महसूस किया जाता है।

चरण 4: बुद्धी (प्रज्ञा) का संकाय छठे महीने के दौरान विकसित होता है, और गर्भस्थ शिशु छठे महीने के अंत तक या सातवें महीने में पूर्ण रूप से जीवयुक्त हो जाता है।

इसलिए, गर्भस्थ शिशु के जीवयुक्त होने की प्रक्रिया, जो चौथे महीने में शुरू होती है, छठे या सातवें महीने में जाकर पूरी होती है। हालाँकि, गर्भस्थ शिशु को सही मायने में एक व्यक्ति या एक जीव सातवें महीने से पहले नहीं कहा जा सकता, इसमें जीवन का पहला संकेत, शिशु के हृदय के रूप में जीव का प्रकटीकरण के कारण चौथे महीने में दिखने लगता है। नतीजतन, गर्भावस्था के चौथे महीने को हिंदू परंपरा में बहुत महत्वपूर्ण माना गया है,चाहे यह पुंसवन संस्कार के समय निर्धारण को लेकर हो या या गर्भपात के औचित्य या अनौचित्य का विश्लेषण करने के लिए, जिसे हम अगले और और अंतिम लेख में विस्तार से देखेंगे।

[1] https://vedpuran.files.wordpress.com/2011/10/markende-puran.pdf

The article has been translated from English into Hindi by Satyam

Disclaimer: The facts and opinions expressed within this article are the personal opinions of the author. IndiaFacts does not assume any responsibility or liability for the accuracy, completeness,suitability,or validity of any information in this article.