मिडिया सच में निष्पक्ष हैं या फिर वो खुद एक पक्ष हैं?

ऐसे में समाज और विश्व में यही संदेश जा रहा हैं कि भारत के हिंदु आक्रमक और हिंसक बन चुके हैं; उनसे लघुमति को खतरा हैं। यही बातों का प्रतिबिंब अमरीका या फिर कोई विदेशी मिडिया और संस्थान की रिपोर्ट्स में देखने को मिलता हैं; यही चक्र फिर अपूर्णित रूप से चालू रहता हैं।

मिडिया सच में निष्पक्ष हैं या फिर वो खुद एक पक्ष हैं?

हाल ही में झारखण्ड में बाइकचोरी के आरोपी तबरेज़ अंसारी की भीड़ द्वारा हत्या हो गई और ये मामला कथित लिबरल मीडिया ने खूब उछाला। जय श्री राम पर पाबंदी और उसकी बदनामी पर बहुत सारी कॉलम भी लिखी गई। कुछ लोगो की माने तो UN में भी ये मामला उछाला गया, ये विरोध प्रदर्शन कुछ नया या तो विशेष नहीं है। हालांकि व्यक्ति कोई भी हो , उसकी जान महत्वपूर्ण हैं, यह भी स्वीकारना चाहिए कि भीड़ हिंसा समस्या हैं बिना किसी मज़हब के।

लेकिन जब विरोध प्रदर्शन में एक प्रकार की सिलेक्टिविटी आ जाती हैं तो यह प्रतीत होता हैं कि आप किसी खास मजहब के पक्ष में हैं और अन्य का पुरजोर से विरोध कर रहे हैं। या कुछ यूँ कहा जाए तो मिडिया भी एक प्रोपगंडा की मशीन बन चूका हैं। इसी बात को मैं कुछ दिनों से देख रहा हूँ और मेरा निष्कर्ष आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ।

जय श्री राम’ के नारों पर झूठा प्रोपगंडा

कुछ वातावरण ही ऐसा बनाया गया हैं की जैसे श्री राम का नाम लेना ही कोई बड़ा अपराध हो और उसमे मिडिया का एक अहम रोल हैं। यद्यपि कोई व्यक्ति की पिटाई श्री राम न बोलने की बजह से होती हैं तो वह निंदनीय हैं लेकिन उससे भी ज्यादा निंदनीय कृत्य श्री राम के नाम पर झूठी खबरें फैलाकर भय का वातावरण खड़ा करना हैं।

पिछले महीने ही एक खबर तेजी से फ़ैल गई की कानपूर में एक ऑटोचालक को ‘जय श्री राम’ न बोलने की बजह से पीटा गया। प्रमुख मिडिया चैनलों ने उसका रिपोर्टिंग किया (वो भी चंद ट्वीट्स के आधार पर ), यहाँ तक की ‘The Hindu’ ने भी उसके बारे में लंबा चौड़ा लेख लिखा। 

लेकिन यह खबर झूठी निकली। आजतक के संवाददाताओं ने पता लगाया कि ऐसी कोई घटना ही घटित नहीं हुई हैं, ऑटोचालक को इसी लिए पीटा गया था क्योकि उसने कुछ असामाजिक तत्वों को बिठाने के लिए मना कर दिया था। मोहम्मद आतिब, जो की खुद विक्टिम हैं उन्होंने ही इस खबर को झूठ का करार दिया। इसके अलावा भी पश्चिम बंगाल में ‘जय श्री राम’ न बोलने की बजह से पीटने वाला व्यक्ति आपसी मियाँ निकला।

मैंने ऐसी थोड़ी बहुत खबरों को एकत्रित कर एक छबी में समाने का प्रयत्न किया हैं, जो मिडिया द्वारा गलत रूप से फैलाई गई और बाद में झूठी भी साबित हुई।

खबर पर तो ‘The Hindu’ द्वारा पूरा शोर मचाया गया लेकिन वो झूठ निकलने के बाद भी अब तक माफ़ी नहीं मांगी गई, ना तो उस खबर को हटाया गया। मनोविज्ञान में इसे बैंडवेगन इफ़ेक्ट का नाम दिया गया हैं, जो कि एक प्रोपगंडा की भी टेक्निक हैं। जिसमें ज्यादा से ज्यादा व्यक्ति मिडिया के द्वारा फैलाई गई ऐसी घटना के पीड़ित बताने लगेंगे जो कि वास्तव में उनके साथ हुई ही नहीं हैं। १९८० के शुरुआती दशक में अमरीका में लगे हुए यौन उत्पीड़न के झूठे आरोप इसी इफ़ेक्ट से प्रेरित थे। 

एंटी-लिंचिंग के प्रदर्शन में ही लिंचिंग और हिंसा

तबरेज़ अंसारी को न्याय दिलाने वाले प्रदर्शनों में ही हिंसा फैलाई गई लेकिन हर बार की तरह इसे भी कम महत्व दिया गया। मानो की धर्म विशेष द्वारा फैलाई गई हिंसा अहिंसक हैं और हिंदु द्वारा की गई हिंसा हिंसक हैं।

जैसे की सूरत में ही एक विरोध रैली हिंसक बन गई, पुलिस पर पत्थरबाजी भी कर दी गई और कांग्रेस पार्षद के सहित ४० लोगों की धरपकड़ भी हुई। इसी तरह से अलीगढ में तबरेज़ के लिए विरोध प्रदर्शन करती हुई भीड़ ने ही १६ वर्षीय स्वयंसेवक मनीष कुमार पर जलती लकड़ी से हुम्ला कर दिया, और इस तरह से उस की लिंचिंग हुई। झारखंड में भी हिंसा को भड़काई गई, बसों पर हमले हुए, लोगों पर हिंसा हुई और कई लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। टिक टोक के तथाकथित ‘सेलेब्रिटी’ ने भी बदला लेने की बात कर दी।

लेकिन हर बार की तरह इस प्रतिहिंसा को भी अनदिखा कर दिया गया या तो फिर छोटी सी जगह दी गई।

मिडिया एक पक्ष की भूमिका बजा रहा हैं

उपर्युक्त घटनाओं से हम कुछ निर्णय पर आ सकते हैं। जैसे कि,

१. मिडिया के लिए व्यक्ति की जान की किंमत उसके मज़हब पर आधारित हैं। खास कर हिंदुओ के जान की किंमत ही नहीं हैं।

२. जो खबरें नैरेटिव को सूट करेगी (जैसे की संविधान और मुसलमान खतरे में हैं), उसे ही कवरेज दिया जाएगा।

यह बहुत ही खतरनाक घटनाक्रम हैं और मैन स्ट्रीम मिडिया की भूमिका शंका से परे एक खास पक्ष और मज़हब की तरह झुकती दिखाई दे रही हैं। ऐसे में समाज और विश्व में यही संदेश जा रहा हैं कि भारत के हिंदु आक्रमक और हिंसक बन चुके हैं; उनसे लघुमति को खतरा हैं। यही बातों का प्रतिबिंब अमरीका या फिर कोई विदेशी मिडिया और संस्थान की रिपोर्ट्स में देखने को मिलता हैं; यही चक्र फिर अपूर्णित रूप से चालू रहता हैं। 

जब की पूरा चित्र कुछ और ही निर्देशित कर रहा हैं, हिंसा दोनों तरफ से थोड़ी बहुत मात्रा में हो रही हैं लेकिन एक हिंसा को ज्यादा प्राधान्य देकर बढ़ा चढ़ा कर बताया जा रहा हैं और हिंदुओ को बदनाम करने हेतु झूठी खबरें भी फैलाई जा रही हैं। ऐसा कहना बिलकुल भी गलत नहीं होगा कि, मिडिया निष्पक्ष या फिर पक्ष दिखाने वाला नहीं परंतु एक खुद पक्ष बन चूका हैं। 

Featured Image: bbc

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