हिंदू मत में मासिक-धर्म की मान्यताएँ – पहला भाग: अशौच के रूप

हिंदु ग्रंथों के गहन अध्ययन से मासिक-धर्म की मान्यताओं में अशौच की मान्यता प्रमुख रूप से उभर कर आती है।

The article has been translated from English by Avatans Kumar

इसके पहले वाले लेख में हमने दुनियाँ भर के विभिन्न मतों और संस्कृतियों में मासिक-धर्म से जुड़ी मान्यताओं और प्रचलनों पर विचार किया था। हमने देखा कि यहूदी, इस्लाम, तथा ईसाई जैसे संगठित मतों के साथ-साथ उत्तरी अमेरिकी, अफ़्रीकी, और यहाँ तक कि साइबेरियाई मूल निवासी कबीलों में भी मासिक-धर्म को अशुद्धि से जोड़ने तथा मासिक-धर्मी स्त्रियों को किसी-न-किसी तरह से अलग-थलग रखने की मान्यता है।

भारत में हिंदू समाज में मासिक-धर्मी स्त्रियों को हम कुछ नियम-संयम बरतते और एक प्रकार की अशुद्धि की मान्यता का पालन करते हुए पा सकते हैं। पर अब्रहमिक मतों एवं विश्व की अन्य संस्कृतियों की तुलना में हिंदू मत में मासिक-धर्म को विभिन्न प्रकार के उत्सवों और त्यौहारों के रूप में भी मनाया जाता है। नवयुवतियों में मासिक-धर्म शुरू होने से जुड़े उत्सवों से लेकर असम में कामाख्या देवी के सालाना त्यौहार इसके उदाहरण हैं।

हिंदू मत की मासिक-धर्म से जुड़ी इन मान्यताओं में विविधताओं की वजह से लोगों में, ख़ास तौर पर महिलाओं में, कई प्रकार की भ्रांतियाँ पैदा हो गयी हैं। इसी वजह से हमें मासिक-धर्म के विषय पर अलग-अलग लोगों, ख़ास तौर पर महिलाओं से, अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएँ सुनने को मिलती हैं।

एक ओर ऐसे लोग और परिवार हैं जो मासिक-धर्म से जुड़े पुराने रीति-रिवाजों को बिना किसी जाँच-पड़ताल के और बिना उनका मर्म जाने आँखें मूँद कर मानते हैं।  वहीं दूसरी ओर ‘आधुनिक’ और ‘आज़ाद-ख़याली’ लोग हैं जो बिना जाने-बूझे आँखें मूँद कर इन मान्यताओं को नकार देते है। ऐसा वो न सिर्फ़ आधुनिक, ख़ासकर पाश्चात्य, मान्यताओं की आड़ में करते हैं बल्कि वो तो परम्परागत मान्यताओं को समझने तक की कोशिश भी नहीं करते।

इन दोनों चरमबिंदुओं के बीच एक बहुत ही बड़ा तबक़ा ऐसा भी है जो मासिक-धर्म की मान्यताओं को अपनी सुविधाओं के अनुकूल ढाल कर उनका पालन करता है। इससे छोटा तबक़ा उन अल्पसंख्यकों का है जो इन मान्यताओं का मर्म जानने के लिए जाँच-पड़ताल करते हैं।  और इससे भी छोटा तबक़ा उनका है जो मासिक-धर्म से जुड़ी मान्यताओं और परम्पराओं का पालन तो करते ही हैं पर साथ में उनका मूलतत्व और उसके महत्व को भी समझते हैं।

महिलाओं, ख़ास तौर पर युवतियों का मासिक-धर्म से जुड़ी मान्यताओं और नियम-संयमों पर सवाल खड़े करना लाज़मी है। आख़िर मानना और झेलना तो उन्हें ही पड़ता है। छुआछूत, देवालयों में घुसने और फिर पूजा-अर्चना पर रोक-टोक — आख़िर इन अनुष्ठानों में मासिक-धर्म जैसी एक सामान्य जैविक प्रक्रिया अशुद्द क्यों मानी जाती है? लोगों को ऐसे प्रश्नों को पूछने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इन प्रश्नों से भागने का कोई तात्पर्य नहीं है। इन प्रश्नों से भागने का ही परिणाम है कि आज बहुत सी महिलाएँ या तो इन मान्यताओं को यंत्रवत स्वीकार कर लेती हैं या फिर उन्हें रूढ़िवाद या अंधविश्वास मानकर नकार देती हैं। पर ऐसी बिना सोच-विचार वाली प्रतिक्रियाएँ न तो लोगों के लिए वांछित हैं और न ही समाज के लिए।

हिंदू मत, जिसे सनातन धर्म के नाम से भी जाना जाता है, इस देश, उसकी सभ्यता, और उसकी पहचान की बुनियाद है। और इस वजह से देश भर में फलने-फूलने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, और मज़हबी मान्यताओं की जड़ में ‘धर्म’ का ही भाव है। जो व्यक्ति, समाज, और पूरे ब्रह्मांड को संचालित करता है, शाब्दिक अर्थों में धर्म वही है। ‘धर्म’ की इसी विचारधारा से जुड़ी सोच, आदर्श, एवं रीति-रिवाजों में मासिक-धर्म से जुड़ी मान्यताएँ भी शामिल हैं। हाँ, यह सच है की इन मान्यताओं में कुछेक विकृतियाँ आ गयी हैं। पर दूसरी ओर यह भी सच है कि उन्हीं मान्यताओं में से कुछ अभी भी अपने पुरातन और सनातन रूप में विद्यमान हैं। इस विरोधाभास को दूर करना अनाज को भूसे से अलग करने के समान है, पर हाँ थोड़ी समझ और विवेक की ज़रूरत है।

इन सवालों से निबटने के लिए सबसे ज़रूरी यह है कि महिलाओं को सवाल पूछने की आज़ादी हो। और जवाब के तौर पर हिंदू मत में मासिक-धर्म से जुड़ी सारी मान्यतएँ और सारे तथ्य बक़ायदा सामने रखे जाएँ। और फिर अंत में महिलाओं को अच्छे-बुरे, सही-बेकार, सार्थक-निरर्थक इन सब में भेद कर उन मान्यताओं को चुनने या न चुनने की पूरी छूट होनी चाहिए। इस संदर्भ में यहाँ हमारा प्रयास एक सार्थक हिंदू मत को प्रस्तुत करने का है जिसकी जाँच-पड़ताल हम निम्नलिखित बिंदुओं के तहत करेंगे:

∙      अशौच के रूप में मासिक-धर्म

∙      नियम-संयम के रूप में मासिक-धर्म

∙      स्वत: शुद्धीकरण के रूप में मासिक-धर्म

∙      विश्राम के रूप में मासिक-धर्म

∙      पवित्र अनुष्ठान के रूप में मासिक-धर्म

∙      यौगिक संदर्भ में मासिक-धर्म

∙      आयुर्वेद में मासिक-धर्म

∙      मासिक-धर्म के प्रतिबंध

∙      मासिक-धर्म के प्रति रवैया

इस पहले भाग में हम मासिक-धर्म का अशौच के रूप में विचार करेंगे।

अशौच के रूप में मासिक-धर्म

हिंदु ग्रंथों के गहन अध्ययन से मासिक-धर्म की मान्यताओं में अशौच की मान्यता प्रमुख रूप से उभर कर आती है। अशौच का मतलब अनुष्ठानों से जुड़ी अशुद्धि से है जिसके अन्तर्गत मासिक-धर्मी स्त्रियाँ थोड़े अल्पसमय (तीन दिनों) तक धार्मिक अनुष्ठानों के लिए अशुद्ध मानी जाती हैं। पर अशौच है क्या और इस स्थिति की क्या धारणाएँ हैं?

आङ्गिरस स्मृति (पद ३५) के अनुसार मासिक-धर्म की अवधि समाप्त होने के चौथे दिन स्त्रियाँ शुद्धि-स्नान के बाद पुनः शुद्ध हो जाती हैं। वशिष्ट धर्म सूत्र (५।५) इससे भी एक क़दम आगे जाता है: “स्त्रियाँ इस अवधि में तीन (दिन और) रात तक अशुचि (अशुद्ध) रहेंगीं। बौद्धायन धर्मसूत्र के अनुसार अशौच सिर्फ़ “अस्थाई” है।  पराशर स्मृति का कहना है कि अगर किसी बीमारी की वजह से चार दिनों के बाद भी रक्त-स्राव (हॉर्मोन में असंतुलन की वजह से) होता रहे तो वह (तीन दिन के बाद वाला स्राव) अशौच नहीं माना जाएगा। इसपर त्र्यम्बकयजवन की स्त्रीधर्मपद्धती में विस्तार से चर्चा की गयी है जहाँ मासिक-धर्म को कारण के आधार पर चार श्रेणियों में बाँटा गया है: बीमारी की वजह से, जज़्बाती भावनाओं की वजह से, हॉर्मोन असंतुलन की वजह से, और नियमित मासिक स्राव की वजह से। इनमें से सिर्फ़ आख़िरी, यानी कि नियमित मासिक स्राव को ही अशौच माना गया है। इससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि हिंदू धर्म-ग्रंथ मासिक-धर्मी महिलाओं को तीन दिन (और रात) की अवधि तक अशौच मानते हैं। इस मामले में धर्म-ग्रंथों का नज़रिया बिलकुल साफ़ है।

अब इस पर नज़र डालें कि आख़िर अशौच है क्या। वैसे मोटे रूप से इसका अनुवाद गंदगी, अशुद्धि, इत्यादि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पर इसका गूढ़ तत्व इन सामान्य मान्यताओं से परे है। इसे पूरी तरह से विस्तार से समझने के लिए हमें पहले हिंदू मत में एक व्यक्ति और एक व्यक्ति से जुड़ी शौच/अशौच की मान्यताओं को समझना पड़ेगा।

ज़्यादातर आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताएँ भौतिकवादी हैं जिनके तहत एक व्यक्ति को सिर्फ़ एक स्थूल शरीर के रूप में देखा जाता है। यहाँ तक कि मनस (मन) और इससे जुड़ी प्रक्रियाओं को भी स्थूल शारीरिक अंग मस्तिष्क के आधार पर ही देखा जाता है। परंतु इसके विपरीत हिंदू मत में मनुष्य को व्यक्तित्व की पाँच तहों के अंतरगत देखा जाता है। दूसरे शब्दों में मनुष्य का शरीर उसकी आत्मा की पाँच परतों के रूप में देखा जाता है। इन पाँच परतों को पाँच-कोष कहते है। पहला अन्नमय कोष (स्थूल), दूसरा प्राणमय कोष (प्राणाधार),  तीसरा मनोमय कोष (मानसिक), चौथा विज्ञानमय कोष (बुद्धि), और पाँचवाँ आनन्दमय कोष (सच्चिदानंद)। इसप्रकार प्रत्येक मनुष्य पाँच परतों (शरीरों) —  स्थूल, प्राणाधार, मानसिक, बुद्धि, और सच्चिदानंद — का बना हुआ माना जाता है। पर रोज़मर्रा की व्यावहारिक दिनचर्या में मनुष्य सिर्फ़ स्थूल, प्राणाधार, और मानसिक कोषों में रत माना जाता है। अतः मासिक-धर्म को भी इन्हीं तीन कोषों के तहत ही देखना और समझना चाहिए।

मासिक-स्राव को संस्कृत में ‘रजस्राव’ के नाम से भी जाना जाता है। हालाँकि ‘रज’ का अनुवाद अक्सर लहू माना जाता है, परंतु उसे ‘रजस गुण’ के रूप में भी देखा जा सकता है। रजस तीन गुणों में से एक है। रजस प्रवाह, गतिविधि, ऊर्जा, जुनून, इत्यादि जैसा गतिशील व्यक्तित्व दर्शाता है।  वहीं दूसरी ओर यह मनुष्य के सांसारिक दायरों के बंधन को भी उजागर करता है।

स्थूल शरीर में रजस्राव मासिकधर्मी रक्त का द्योतक है। इस रक्त में योनि और ग्रीवा का मवाद और गर्भ का माँस-तंतु मिला होता है जिसे शरीर बाहर निकाल देता है। प्राणाधार शरीर में रजस्राव राजसी ऊर्जाओं, जैसे की प्राण शक्ति (ख़ास तौर पर अपान वायु), के बहाव को दर्शाता है। स्थूल शरीर में रक्त प्राण शक्ति का वाहक माना जाता है। इस प्रकार से रक्त के बहाव से राजसी प्रकृति वाली फ़ालतू प्राण शक्ति को मासिक धर्म के समय शरीर से निकाल कर बाहर फेंक दिया जाता है।  मानसिक कोष में रजस क्रोध, निराशा, बेचैनी, चिड़चिड़ाहट, मनोदशा परिवर्तन, इत्यादि जैसे मनोभावों को दर्शाता है। मासिक-धर्मी महिलाएँ इन मनोदशाओं से दो-चार होती रहती हैं। इस प्रकार से देखें तो मासिक-धर्म एक बहुत ही पेंचिदा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो मासिक-धर्मी महिलाओं को विभिन्न राजसी प्रवृत्तियों से दो-चार कराता है।

शौच और शुद्धि हिंदू मत का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसे सामान्य धर्म माना गया है सभी लोंगों से इसके पालन की अपेक्षा की जाती है। योग में भी इसकी गिनती अनिवार्य नियमों में की जाती है। साथ ही साथ इसे भक्ति और वेदांत के अमल में भी अनिवार्य माना गया है। एक स्मृति में तो इसे सभी कार्यों में आवश्यक क़रार दिया गया है जिसके अनुसार बिना शौच के किए सारे काम बेकार बेकार बताए गए हैं।

उपर्युक्त विवरण से यह बिलकुल साफ़ नज़र आता है कि शौच और पवित्रता के सिद्धांत किसी ख़ास काम को करने की योग्यता और क़ाबिलियत से बहुत ही गहराई से जुड़े हैं। शौच के सिद्धांत की महत्ता पूजा, होम, और मंदिर जाना, इत्यादि जैसे धार्मिक और आध्यात्मिक अनुष्ठानों में और बढ़ जाती है। हिंदू धार्मिक ग्रंथ अशौच को सिर्फ़ बाहरी अशुद्धि के रूप में ही नहीं देखते हैं, बल्कि अंदरूनी अशुद्धि के रूप में भी देखते हैं। इसप्रकार शुद्धि-अशुद्धि को स्थूल, प्राणमय, और मानसिक सतहों से जुड़ा देखा जा सकता है।

स्थूल स्तर पर शुद्धि का तात्पर्य शारीरिक साफ़-सफ़ाई से है। इस वजह से शरीर से निकालने वाले सभी स्राव जिसमें पसीना, मल-मूत्र, रक्त, और मासिक-स्राव भी शामिल हैं, स्थूल स्तर पर अशौच माने जाते हैं। प्राणमय स्तर पर पंच-प्राण में किसी प्रकार का असंतुलन अशौच माना जाता है। उदाहरण स्वरूप अपानवायु और राजसी शक्तियों के बीच का असंतुलन प्राणमय स्तर पर अशौच माना जाएगा। मानसिक स्तर पर काम, क्रोध, जलन, इत्यादि अवसादों से मुक्त मन शौच माना जाता है। वहीं दूसरी ओर इन मानसिक अवसादों से ग्रस्त मन अशौच माना जाएगा।

सभी धार्मिक और आध्यात्मिक अनुष्ठानों में शारीरिक स्वच्छता, प्राणों में संतुलन, और शांत मन की बहुत महत्ता है। किसी हद तक बिना इन तीनों के पूजा-अर्चना करना भी सम्भव नहीं है। अर्थात धार्मिक अनुष्ठानों के करने के अधिकारी वही हो सकते हैं जो शारीरिक, प्राण, और मानसिक रूप से शुद्ध हों। स्वच्छता और शुद्धि अनेक सांसारिक (ग़ैर-धार्मिक) अनुष्ठानों के लिए भी आवश्यक है। हमारे धर्म-ग्रंथ उन विभिन्नन परिस्थितियों का खुल कर वर्णन करते हैं जिसमें शौच-अशौच की वजह से काम करना प्रतिबंधित है। चाहे वो परिस्थितियाँ धार्मिक-अधायतमिक हों या निपट सांसारिक। ऐसी अशौच परिस्थितियों के कई उदाहरण हैं — जैसे किसी परिजन का देहावसान, बच्चे का जन्म, मासिक-धर्म, इत्यादि।

यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि शौच का तात्पर्य जितना अशुद्धि से है उतना ही धार्मिक अनुष्ठानों के कर पाने की क्षमता से भी। मासिक-धर्म से जुड़ा अशौच न ही सिर्फ़ शारीरिक स्तर पर मैलेपन का द्योतक है बल्कि यह शारीरिक, प्राण, और मानसिक स्तर पर बढ़ी हुई राजसी प्रवृत्तियों को भी दर्शाता है जिसके तहत:

१। मासिक-धर्मी महिलाओं के लिए कुछ काम उपयुक्त नहीं माना जाता है

२। मासिक-धर्मी महिलाएँ कुछ कामों के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदू धर्म-ग्रंथ महिलाओं को कुछ विशेष काम न करने की सलाह देते हैं। उदाहरण स्वरूप, आङ्गिरस स्मृति (मंत्र ३७) मासिक-धर्मी महिलाओं को पूजा-होम करना, मंदिर में जाना जैसे धार्मिक अनुष्ठानों को न करने की सलाह देता है। वृहदारण्यक उपनिषद (६।१।१४) मासिक-धर्मी महिलाओं को धातु के बर्तनों (धातु, स्थूल और सूक्ष्म दोनों रूपों में, ऊर्जा का सुचालक है) से न पीने को कहता है। यहाँ तक कि यजुर्वेद तैत्तरीय संहिता (२।५।१) महिलाओं को खाना इत्यादि न पकाने की भी सलाह देता है क्योंकि बढ़ी हुए राजसी प्रवृत्तियों में बनाया हुआ खाना भी राजसी प्रवित्तियों वाला ही होगा, ऐसा माना जाता है। संहिता मासिक-धर्म के समय सम्भोग भी न करने की सलाह देता है। अगर बढ़ी हुई राजसी प्रवृत्तियों में गर्भ-धारण से (हालाँकि इस समय गर्भ-धारण की सम्भावना अत्यंत ही कम है पर असम्भव नहीं) बच्चे में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होने की सम्भावना है। यहाँ तक की गर्भ में ही मृत्यु तक की सम्भावना है। आयुर्वेदिक पुस्तकों में भी यह बात खुल कर कही गयी है जिसकी चर्चा हम आगे के अंकों में करेंगे।

शौच-अशौच के इस प्रकार के नियम-संयम सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही नहीं हैं। विभिन्न परिस्थितियों में स्त्री और पुरुष दोनों अशौच हो जाते हैं, जैसे की परिजनों की मृत्यु होने पर। इसलिए मासिक-धर्म के समय महिलाओं का अशौच उन्हें नीचा दिखाने के लिए नहीं है। बल्कि, जैसा कि हम आगे आने वाले अंकों में देखेंगे, यह अशौच अल्पकालिक ही नहीं पर दीर्घकालिक रूप से शुद्ध करने वाला भी है।

तथापि, यह जानना भी ज़रूरी है कि कई हिंदू सम्प्रदायों में, ख़ास तौर पर तांत्रिक  सम्प्रदायों में कई ख़ास अनुष्ठानों के लिए मासिक-धर्म को शौच माना जाता है।

अगले अंक में हम यह देखेंगे कि अशौच मासिक-धर्म का मात्र एक पहलू है। मासिक-धर्म को हिंदू मत में आत्म-संयम और निज-शुद्धीकरण के रूप में भी देखा जाता है।

Image credit: http://blog.sexualityanddisability.org/2016/04/notions-of-impurity-are-holding-back-women-from-achieving-equality/

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