वैलेंटाइन वीक – बाजारवाद की एक और उपज |

भारत में 2014 में वैलंटाइंस डे 16 हजार करोड़ में बिका, 2015 में यह आंकड़ा 22 हजार करोड़ पहुंचा और यह लगातार 40% प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है।

१४ फरवरी

इस दिन के आने के एक हफ्ते पहले से लोग पागल होने लगते हैं रोज डे , किस डे, चोकलेट डे, हग डे  वैलेंटाइन डे आदि मनाने के लिए, और कुछ लोग इन्हें पीटने के लिए तैयारी करने लगते हैं कि  यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है ? पर क्या ये दोनों ही जानते हैं कि  असल में ये वैलेंटाइन डे क्या है? और कहाँ से शुरू हुआ?  क्या आप भी वैलेंटाइन डे मनाने वालों में से एक हैं ? या फिर आप भी लाठियों से इस दिन लोगो को पीटने वालों में से हैं ?  आप जिस भी तरफ हों इस लेख को जरुर पढ़िए  शायद आपके विचार इसे पढने के बाद बदल जाएँ , इसे इसलिए भी पढ़िए ताकि आगे से आपसे कोई वैलेंटाइन डे की असलियत पूछे तो आप बता सकें |

इतिहास

रोमन साम्राज्य में एक राजा हुआ करता था क्लौडीयस और उसके समय में उनके चर्च का यह मानना था कि  जो सैनिक शादी नहीं करते वो ज्यादा ताकतवर होते हैं तो उनकी प्रजा में राज घराने के अलावा किसी को भी शादी करने का हक नहीं था | कोई भी प्रेमी जोड़ा यदि बन जाये तथा शादी करने का सोचे और पता चल जाये तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था | तब एक चर्च के पादरी ने इस बात का विरोध किया तथा उसने कुछ जोड़ो की छुपकर शादी करवा दी | जब यह बात सबको पता चली तब उसे गिरफ्तार करके यातनाएं देकर मार डाला गया | उसका नाम संत वैलेंटाइन था | इन्ही संत ने जब यह जेल में थे तो जेलर की बेटी को एक पत्र लिखा था जिसमे अंत में इन्होने “Your Valentine” लिखा था | इसी बात की नक़ल करके बाद में लोगों ने यह लिखना शुरू कर दिया , यहाँ तक कि  नक़ल में भी इतनी अक्ल नहीं लगायी कि  कम से कम वैलेंटाइन के नाम की जगह खुद का नाम तो लिख लेते , जो भी हो इस तरह से यह शुरू हुआ | इसके बाद कई सालो तक प्रेमी जोड़ो की शादियों का विरोध चलता रहा फिर जब सब कुछ ठीक हुआ तो युरोप में शादी करने वाले जोड़े वैलेंटाइन की याद में यह दिवस मनाने लगे |

मुर्खतापूर्ण नक़ल  

अब हम भारतीय तो सदियों से शादी करते आ रहे हैं भगवान राम , कृष्ण तथा सभी ऋषि मुनियों ने शादी की है | सबसे प्राचीन भगवान् शिव ने भी शादी की है तथा बुद्ध, महावीर ने भी संन्यास लेने से पहले शादी की थी | यही नहीं भारत में प्रेम दिवस के रूप में बसंत पंचमी और होली जैसे कई त्यौहार हैं जिनमे सारा समाज मिलजुलकर खुशियाँ मनाता है, फिर भी भारत में मुर्खतापूर्ण तरीके से विदेशी वैलेंटाइन को क्यों पूजा जा रहा है? बस इसलिए क्योंकि अँगरेज़ करते हैं, तो हमें भी करना है , क्योंकि वो ही हमारे आदर्श हैं ? वो देश छोड़ कर चले गए तो क्या हुआ अभी भी मानसिक रूप से तो हम उन्ही के गुलाम हैं | हमारे माई बाप जो करेंगे, हम तो अंध भक्ति में उसी का अनुसरण करेंगे |इस तरह का एक मानस देश में आज़ादी के बाद भी बना हुआ है | इसी तरह के काले अंग्रेज, लार्ड मेकाले बनाना चाहता था –“जो शरीर से भारतीय हों मगर मन और मानसिकता से अंग्रेजों की तरह सोचे” ताकि कभी उनकी मानसिक गुलामी से भारत आज़ाद ना हो पायें | अफ़सोस कि आज़ादी के पहले इतने काले अँगरेज़ नहीं थे जितने आज़ादी के बाद बन गए हैं | इन सबके बाद भी हम अपने आपको वैज्ञानिक बुद्धि का कहते है| क्या कभी जानने की कोशिश की कि जो कर रहे हैं इसके पीछे का सच क्या है और क्यों कर रहे हैं, अगर नहीं तो इसी तरह के पचासों दिवस साल भर मनाकर हम किस तरह देश का नुकसान कर रहे हैं देखिये :

वैलेंटाइन डे के पीछे के मूल मकसद बाजारवाद

इतने साल पुराने डे का आज क्या औचित्य था? यह प्रश्न मेरे मन में आया और अध्ययन करने पर पता चला वैलेंटाइन डे का पागलपन भारत में १९९१ के वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण तथा ओपन मार्किट के बाद से ज्यादा बढ़ा है | और अध्ययन करने पर पता चला कि इसमें प्रेम, युवाओं की आजादी आदि बातो से किसी को कोई मतलब नहीं है बल्कि इसके पीछे का मूल कारण है विदेशी कंपनियां जो की इस दिन कार्ड, खिलौने, दिल वाले गुड्डे, कंडोम, गर्भनिरोधक गोलियां, परफ्यूम,  चाकलेट, शराब, कोल्ड ड्रिंक, कपडे और इसी तरह के कई गिफ्ट के सामान बेचती हैं,  जिससे भारत के भोले भाले नागरिकों  का लगभग १०० करोड़ से ज्यादा रुपया ये लोग सिर्फ एक हफ्ते में भारत से यूरोप, अमेरिका और आजकल चाइना ले जाते हैं और भारतियों के हाथ में थमा जाते हैं ……….वैलेंटाइन डे नाम का लॉलीपॉप ! कितने बुद्धिमान और तर्कपूर्ण लोग है हमारे जो टीवी पर बहस करते हैं इसे मनाना  चाहिए ये प्रेम दिवस है |  कई मीडिया के अख़बारों और चैनलों को भी पैसे भेज दिए जाते हैं इसे और बड़ा-चड़ा कर पेश करने के लिए ताकि प्यार में अंधे लोग इनका और अधिक सामान खरीदें और गिफ्ट दें ताकि भारत को और लूटा जा सके | उनके देशो में मंदी है तो भारत के लोगों से पैसा खीचना इनका पुराना तरीका है | भारत में 2014 में वैलंटाइंस डे 16 हजार करोड़ में बिका, 2015 में यह आंकड़ा 22 हजार करोड़ पहुंचा और यह लगातार 40% प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है।

आजकल तो ७ दिन पहले से अजीब अजीब से दिवस मनने लगते हैं जिससे ये पैसा ७ गुणा बढ़कर जा रहा है जैसे की चोकलेट डे और किस डे | टीवी पर दिन भर इनके सामान को बेचने के विज्ञापन चलते हैं तथा पत्रकार प्रेम पर चर्चाएँ करते हैं | दरअसल यह सभी कुछ प्रायोजित होता है और भारत से पैसा खीचने की विदेशी कंपनियों की चाल का हिस्सा होता है |

कुछ लोग बोलते हैं इसे माता पिता से प्रेम, भाई बहिन से प्रेम, दोस्तों से प्रेम दिवस करके मनाते हैं और वो फिर इन्ही दुकानों पर जाकर यही सब गिफ्ट खरीद कर अपने इन लोगो में बाँटने लगते हैं | इन्हें भी यह नहीं पता कि देश का पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ये कम्पनिया लूट कर ले जा रही हैं |

अब यह आपको तय करना है कि आप किसके साथ हैं प्रेम दिवस मनाकर शराब पीजिये या जहरीली  कोल्ड ड्रिंक पीजिये, केक खाइए और विदेशी वस्तुए खरीद कर भारत का पैसा विदेश भेजिए ??

या फिर

ध्यान कीजिये हम उस भारत में रहते हैं जहाँ ५० करोड़ से ज्यादा लोग 20 रूपये प्रतिदिन या इससे भी कम  पर गुजारा करते हैं | जहाँ विदर्भ और बुंदेलखंड में किसान आत्महत्या कर रहा है | जहाँ कई गरीब बच्चे सडको पर भीख मांग रहे हैं | यदि भारत का पैसा भारत में रहेगा तो उनका कुछ भला हो सकेगा, याद रखिये जितनी ताकतवर विदेशी बड़ी कंपनियां होंगी उतना ही कमजोर लोकतंत्र होगा ?

अफ़सोस आज इस बात का नहीं है कि जो लोग वैलेंटाइन दिवस  मना रहे हैं उन्हें इसके विषय में नहीं पता, बल्कि अफ़सोस इस बात का है कि डंडा लेकर विरोध करने वालों को भी यह समझाना सही तरह से नहीं आता कि वो विरोध क्यों कर रहे हैं तथा वो हिंसा का सहारा लेकर पूरी भारतीय संस्कृति को बचाने की जगह उल्टा बदनाम कर देते हैं | यदि आपको मेरी बातों में जरा सी भी सच्चाई लगती है तो पूंजीवाद और बाजारवाद के षड्यंत्र को समझ कर देश के हित में जो सही हो वो करें तथा अंग्रेजो की मानसिक गुलामी से स्वयं को तथा देश को आजाद करवाएं तथा जितना हो सके देश में बना हुआ सामान ही खरीदे एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकडजाल से बचकर रहें |

Disclaimer: The facts and opinions expressed within this article are the personal opinions of the author. IndiaFacts does not assume any responsibility or liability for the accuracy, completeness, suitability, or validity of any information in this article.