The article has been translated into Hindi by Avatans Kumar (@avatans)
मासिक-स्राव एक प्राकृतिक और जैविक प्रक्रिया है। महिलाएँ अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस प्रक्रिया से दो-चार होते हुए गुजारती हैं। कई मायनों में मासिक-स्राव (या मासिक-धर्म) की प्रक्रिया स्त्री जाति के सार, जिसमें गर्भ-धारण और मातृत्व भी शामिल हैं, से जुड़ी हुई है। स्राव यह भी दर्शाता है कि कई मायनों में स्त्रियाँ पुरुषों से जाती तौर पर अलग हैं। इस वजह से दुनियाँ के विभिन्न समाज और संस्कृतियों में, स्त्रियों और पुरुषों के आपसी संबंधो से लेकर स्त्रियों की सामाजिक अवस्था तक में, स्राव का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है।
हाल-फ़िलहाल में मासिक-धर्म का विषय सुर्ख़ियों में रहा है। इसकी वजह कभी मंदिरों में प्रवेश को लेकर रही है तो कभी लिंग समानता को लेकर। इन विवादों ने, स्त्रियों और पुरुषों सहित कई लोगों में, मासिक-धर्म और उससे जुड़ी अनेकों सांस्कृतिक मान्यताओं को लेकर कई तरह के सवाल खड़े किए हैं। इन्हीं बातों को मद्देनज़र रखते हुए हम इस लेख के माध्यम से मासिक-धर्म से जुड़ी परम्पराओं को वैश्विक परिपेक्ष में देखने की कोशिश करेंगे।
अपने लेख ‘Menstruation, Religion and Society’ में अनु भारतीय ने विभिन्न पंथों में मासिक-धर्म की परम्परा का अध्ययन किया है। ईसाई मत में मासिक-धर्म की परंपरा का परीक्षण करते हुए उन्होंने लिखा है:
“ईसाई मत में मासिक-धर्म से जुड़े बंधनों वाले इतिहास ने ही मुख्य रूप से औरतों को रौब वाले ओहदों तक पहुँचने से रोके रखा है। यहूदी मत की मान्यताओं के जैसे ही कई कैथलिक मतवलंबियों में यह मान्यता है कि स्त्रियों को मासिक-धर्म समय सम्भोग नहीं करना चाहिए।
“पूर्ववर्ती कट्टरपंथी ईसाई चर्च की मान्यता के अनुसार स्राव को अशुद्ध माना जाता है। स्राव के समय महिलाओं को कम्यूनियन लेने की मनाही होती है। साथ ही बाइबल सरीखी पंथ से जुड़ी अन्य वस्तुओं को छूना भी वर्जित होता है। ये परम्पराएँ हालाँकि विश्वव्यापक नहीं हैं पर इन्हें पूरी तरह से दरकिनार भी नहीं किया जा सका है।
“रूसी कट्टरपंथी ईसाई स्राव को अशुद्ध मानते हैं। स्राव के समय महिलाओं के रहने की व्यवस्था अलग-थलग होती है। वे गिरिजाघर से जुड़े संस्कारों में शामिल नहीं होती हैं, पुरुषों से किसी भी तरह के सम्पर्क से पूरी तरह अलग-थलग रहती हैं, और यहाँ तक कि ताज़ी अनपके खाने की चीज़ों को छू भी नहीं सकतीं। स्राव के समय महिलाओं की नज़र पड़ने से मौसम तक ख़राब हो सकता है, ऐसा माना जाता है।
“हालाँकि पश्चिमी ईसाई पंथों में परिस्थिति इतनी चरम नहीं है, कुछ-न-कुछ नकारात्मक दृष्टिकोण तो वर्तमान हैं ही।”
इसी प्रकार से रेने पिंक्स्टन भी अपने लेख “Menstrual Taboos – Anthropology of Gender” में लिखती हैं: “ईसाई मत में भी स्राव से सम्बंधित कई तरह के बंधन हैं, हालाँकि ज़्यादातर बंधनों को अनदेखा कर दिया जाता है या फिर उन्हें बंधनों के रूप में ही नहीं देखा जाता है। ईसाई मत के सबसे नामी-गिरामी बंधनों में से एक कैथ्लिक सम्प्रदाय से जुड़ा है। इस ईसाई संप्रदाय में औरतों को चर्च से जुड़े किसी ऊँचे ओहदे पर पहुँचने की आज़ादी नहीं है। यहाँ तक कि औरतों को तो कई अमरीकी डायसेस के पूजा स्थलों में भी घुसने की मनाही है। इसका कारण यह है कि औरतें अपने मासिक-धर्म के समय अशुद्ध और प्रदूषित होती है। ऐसा कई ईसाई मठों की सिस्टर्स का मानना है (Phipps १९८०)। दरसल ईसाई मत के कई पुराने शास्त्र, यहाँ तक कि स्वयं बाइबल, के अनुसार महिलायें अशुद्ध मानी जाती हैं, ख़ास तौर पर अपने मासिक-धर्म के समय। यहूदी-ईसाई मत परम्पराओं में मासिक-धर्म से जुड़े बंधनों के बारे में लिखने वाले एक लेखक के जन-मत सर्वेक्षण के अनुसार “[कई कैथ्लिक] महिलाएँ [अपने मासिक स्राव के समय] धार्मिक अनुष्ठानों के मामलों में अपने आप को अशुद्ध मानती हैं।” (Phipps १९८०:३०१)।”
इस्लाम में मासिक-धर्म से सबंधित प्रचलनों के बारे में अरु भारतीय लिखती हैं: “कुछ लोगों से बात करने के पश्चात मुझे ऐसा लगा कि मासिक-धर्म के समय औरतों को क़ुरान को नहीं नहीं छूना चाहिए, मस्जिद में नहीं जाना चाहिए, नमाज़ नहीं पढ़ना चाहिए और उन सात दिनों तक अपने पति के साथ सम्भोग भी नहीं करना चाहिए। वैसे अगर नमाज़ और रोज़ा करना भी चाहे तो उन्हें इसकी इजाज़त नहीं है, पर तकनीकी दृष्टि से औरतों को रोज़ के नमाज़ न करने और रोज़े न रखने की छूट मिली हुई है।”
उपरोक्त बातों से इत्तेफ़ाक रखते हुए एम गूटरमैन अपने लेख “Menstrual Taboos Among Major Religions” में लिखते हैं: “मुस्लिम संस्कृति में पुरुष “अशुद्ध” (यानी वो महिलाएँ जो अपने मासिक-धर्म से गुज़र रही हैं) महिलाओं से परहेज़ रखते हैं (Whelan, १९७५)। ये नियम क़ुरान पर आधारित हैं जिसमें लिखा है, “ऐ मुहम्मद, वे स्राव के बारे में पूछते हैं। कहिए कि यह एक बीमारी है और ऐसे में औरतों को तब तक अकेला छोड़ देना चाहिए जब तक कि वो फिर से स्वच्छ न हो जाएँ। और फिर जब वो अपने आपको फिर से शुद्ध कर लें फिर उनके पास जाओ, ऐसा ही अल्लाह ने तुम्हारे लिए हुक्म फ़रमाया है।”
वो फिर आगे लिखते हैं: “स्राव के समय महिलाओं के ऊपर मुख्यतः दो तरह के प्रतिबंध हैं। पहला, वे किसी मस्जिद या किसी अन्य पुण्य-स्थलों में नहीं घुस सकती हैं (Engineer, १९८७; Fisher १९७८)। यहाँ तक कि स्राव के समय वो ना तो नमाज़ पढ़ सकती हैं और ना ही रमज़ान के रोज़े रख सकती हैं (Engineer, १९८७)। वे न ही क़ुरान को छू सकती और न ही उसका पाठ कर सकती हैं (Fischer, १९७८: Maghen, १९९९: Whelan, १९७५)। दूसरा, उन्हें रक्त-स्राव के शुरू होने के दिन से लेकर अगले सात दिनों तक सम्भोग की इजाज़त नहीं होती है। वैसे अगर नमाज़ और रोज़ा करना भी चाहे तो उन्हें इसकी इजाज़त नहीं है पर तकनीकी दृष्टि से औरतों को रोज़ के नमाज़ और रोज़े न करने की छूट मिली हुई है (Azeem, १९९५)।”
“इसके अतिरिक्त, पुनः “शुद्ध” होने के लिए महिलाओं को विधिवत रूप से “सम्पूर्ण सफ़ाई” करने की ज़रूरत है (Fischer, १९७८: Whelan, १९७५)। इस सफ़ाई के बाद उन्हें फिर से नमाज़, रोज़े की तथा फिर से मस्जिद में घुसने की अनुमति मिलती है।”
यहूदियों के मासिक-धर्म संबंधी नज़रिए पर टिप्पणी करते हुए एम गूटरमैन व अन्य का कहना है कि: यहूदी पंथ के नियम मासिक-धर्म के समय, और पुनः उसके बाद के सात दिनों तक स्त्रियों और पुरुषों के बीच किसी भी तरह के शारीरिक सम्पर्क की खुलेआम मनाही करते हैं (Eider, १९९९: Keshet-Orr, २००३)। इसमें एक-दूसरे के बीच वस्तुओं के आदान-प्रदान, बिस्तर साझा करना (ज़्यादातर जोड़े अलग-अलग बिस्तरों पर सोते हैं जिसे निद्दाह के समय खिंचकर अगग किया जा सकता है), एक ही सोफ़े या मसनदों पर बैठना, पत्नी का जुठा खाना, उनके ईत्र सूँघना, उसके कपड़ों की ओर (भले ही उन्हें पहिना गया हो या न) देखना, या फिर उसका गायन सुनना भी शामिल हैं। नियमों के अनुसार, स्त्रियों को इन दो हफ़्तों के बाद मिकवा स्नान करना पड़ता है। रक्त स्राव के शुरू होने के समय से लेकर सात दिन के बाद वाले “शुद्ध दिन”, जब स्त्रियाँ नियमानुसार स्नान करती हैं, को “निद्दाह (अशुद्ध)” काल” कहते हैं (Guterman, २००६)।”
बौद्ध मत में मासिक-धर्म से जुड़े नज़रिए के बारे में अरु भारतीय लिखती हैं कि हालाँकि इसे एक प्राकृतिक प्रक्रिया समझा जाता है, कई बौद्ध मंदिरों में मासिक-धर्म से गुज़रती महिलाओं को स्तूपों की परिक्रमा की इजाज़त नहीं दी जाती है। वह आगे लिखती हैं कि: “मासिक-धर्म के समय स्त्रियों का ‘की’ (जिसे आम तौर पर ची लिखते हैं और जिसे एक आध्यात्मिक शक्ति के रूप में देखा जाता है और इस शक्ति के रूप में यह संसार की सभी वस्तुओं में विराजमान है) छिन जाता है। बौद्ध मत की एक मान्यता के अनुसार प्रेतात्मा ख़ून पीती है। इस वजह से मासिक-धर्म के समय महिलाएँ प्रेतात्माओं को आकर्षित करती हैं। फिर इस वजह से वे स्वयं और औरों को ख़तरे में डाल सकती हैं। बुद्ध धर्म एजुकेशन असोसीएशन के उदाहरण के अनुसार, इस डर से कि चावल के सिरके (या हंडिया) बनाने की प्रक्रिया में कहीं दोष न आ जाए, मासिक-धर्म के समय महिलाओं को उसके पास भटकने भी नहीं दिया जाता है।
अपनी पुस्तक ‘The Mothers: a study of the origins of sentiments and institutions’ में रॉबर्ट ब्रिफ़्फ़ौ ने दुनियाँ भर की विभिन्न संस्कृतियों में मासिक-धर्म से जुड़ी परम्पराओं की जाँच-पड़ताल की है। वो एस्किमो के बारे में लिखते हैं कि मासिक-धर्म के दौरान महिलाओं के लिए अलग झोपड़ियों की व्यवस्था रहती है। साथ ही उनके खान-पान पर भी कई पाबंदियाँ होती हैं। उनके खाने-पीने के बर्तन तक अलग होते है। इसी तरह के अलगाव की व्यवस्था टलिंगित लोगों में भी देखने को मिलती है। ये (टलिंगित) लोग उत्तरी अमेरिका के पूर्वोत्तर प्रशांत तटीय इलाक़ों के मूल निवासी हैं। टलिंगित महिलयों को तो सोने और अपने खाने-पीने की चीज़ों को चबाने तक की छूट नहीं थी। उन्हें लकड़ी के टीलों की आड़ में सोना पड़ता था। साथ में उन्हें खाने में जूठा और बचा-खुचा खाना ही दिया जाता था। अमेरिका का मूल निवासी क़बीला है पीमा जो अब ज़्यादातर मध्य-दक्षिण ऐरिज़ोना में रहता है। पीमा महिलाओं को अपने मासिक-धर्म के दिन जंगलों और झाड़ियों में जा कर गुज़ारने पड़ते हैं। कनाडा की कुछ प्रजाति महिलाओं को मर्दों के रास्ते में आने तक की मनाही होती है।
इस प्रकार से रॉबर्ट लिखते हैं कि “महिलाओं को स्राव के समय अलग झोपड़ियों में भेज देने की परम्परा का चलन क़रीब-क़रीब सभी उत्तर अमेरिकी प्रजातियों में है।” इसी से मिलती-जुलती परम्पराएँ दक्षिण अमेरिका की कई मूलनिवासी प्रजातियों में भी देखने को मिलती हैं। मिसाल के तौर पर, उआउपे प्रजाति में भी अलग झोपड़ियों का प्रचलन है। टिकूना प्रजाति के लोग तो एक क़दम और आगे जाते हैं। उनके यहाँ मासिक धर्म के समय महिलाओं की कोड़ों से पिटाई, बालों की खिंचाई, और एकांतवास की परम्परा है। चिले के अरौकेनियन क़बीले के लोग महिलाओं को बीमार लोगों से मिलने तथा सार्वजनिक मनोरंजन के कार्यक्रमों शामिल नहीं होने देते।
इतना ही नहीं, मासिक धर्म से जुड़ी मान्यताएँ और प्रतिबंध साइबेरिया के मूलनिवासी कबीलों में भी पाए गए हैं। मासिक-धर्म के समय कमचटका, यूकाघिर, कोरयाक, सोमायेद आदि क़बीले महिलाओं को अलग-थलग रखते हैं। एक यूकाघिर महिला को मछली मारने तथा शिकार करने की सामग्रियों को छूने से मना कर दिया गया। सोमायेद महिलाओं को अग़ल कर के एक एकांत कक्ष में रखा गया। मासिक-धर्म के समय की समाप्ति के पश्चात उन्हें पुनः शुद्ध करने के लिए उन्हें बारहसिंघा के बालों के धूँए से भी निहुँछा गया। इसी प्रकार से कई अफ़्रीकी कबीलों में, चाहे वो बुशमैन हों या बकोंगो, या फिर बेला अकिकूयू, इत्यादि — सभी मासिक धर्म से गुज़रती महिलाओं पर बंदिशें लगाते हैं।
पुरातन अरब भी मासिक धर्म से जुड़े बंधनों से मुक्त नहीं था। कई और बंधनों के अतिरिक्त वहाँ भी महिलाओं को मासिक धर्म के समय अलग कुटियों में रखा जाता था। फ़ारस तो इन मामलों में एक क़दम और आगे था। फरसियों का मानना था कि मासिक धर्म के समय स्त्रियों की ओर देखना भी अशुद्ध है। पुरातन फ़ारस से जुड़े बंधनों के बारे में रॉबर्ट लिखते हैं: “पुराने ज़माने के फ़ारस में औरतों को मासिक-धर्म की अवधि में घर के कोने में अलग-थलग कर दिया जाता था जिसे ‘दश्तनिस्तान’ के नाम से जाना जाता था। उन्हें वहाँ स्राव की अवधि के समाप्त होने के २४ घंटे बाद तक रहना पड़ता था। इस अवधि में घरों में आग भी नहीं जलायी जाती थी और महिलाओं को आग और पानी से कम से कम पंद्रह क़दम दूर रहना पड़ता था; जलावन की लकड़ियों को घर से हटाकर फ़र्श को धूल से पाट दिया जाता था। औरतों का खाना भी अलग से पकता और जब खाना परोसने की बारी आती तो परोसने वाले कम से कम तीन क़दम की दूरी बना कर रखते। खाना लेने से पहले स्त्रियों को अपने हाथों को कपड़ों से लपेटे रखना पड़ता था। इस अवधि के समाप्त होने के पश्चात उनके पहने गए सभी कपड़ों को नष्ट कर दिया जाता था और स्त्रियों को बैल-मूत्र से साफ़ कर शुद्ध किया जाता था।”
अब अगर चीन में मासिक-धर्म से जुड़े बंधनों की बात करें तो इसके बारे में रेने पिंक्स्टन लिखती हैं: “क्योंकि शरीर के सारे अवशिष्ट और मवाद एक प्रकृतिक प्रक्रिया के तहत बाहर निकलते हैं, चीनी लोग इन्हें अशुद्ध मानते हैं। परंतु इन सब अवशिष्टों में मासिक-धर्म की अवधि का निकला रक्त सबसे अशुद्ध है। इस रक्त स्राव का सीधा सम्बंध ख़तरा, पीड़ा, और मृत्यु (अजन्मे गर्भ) से है। चीनी लोग यह भी मानते हैं कि मासिक-धर्म की अवधि में स्त्रियों का मानसिक संतुलन असंयत होता है। चीनी लोगों में मासिक-धर्म से जुड़ी मान्यताएँ सामान्य क़िस्म की हैं। जैसे मासिक-धर्म के समय महिलाएँ अपने पति के कपड़ों के साथ अपने कपड़े नहीं धो सकती हैं। अगर उनके पति की ख़ास कुर्सी हो जिसपर वो अक्सर बैठते हों, उस कुर्सी पर उन्हें बैठने की मनाही होती है। वे सार्वजनिक अनुष्ठानों में देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना भी नहीं कर सकती हैं, पर व्यक्तिगत रूप पूजा-पाठ की आज़ादी है। अन्य सार्वजनिक अनुष्ठानों, जैसे शादी-ब्याह, जन्म-मरण, इत्यादि में भी उनका जाना वर्जित है। ऐसा माना जाता है कि सम्भोग के समय स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के कुछेक मूल तत्वों को अपने-आप में समाह्रित कर लेते हैं। अगर मासिक-धर्म के समय सम्भोग हो तो पुरुष स्त्रियों के अशुद्ध मूल-तत्व अपना लेंगे और स्वयं अशुद्ध हो जाएँगे, ऐसा माना जाता है। इसके परिणाम स्वरूप कई प्रकार के गुप्तरोगों के होने की सम्भावना हो सकती है। कुछ रोग तो जानलेवा भी हो सकते हैं।”
उपरोक्त वर्णनों से यह ज़ाहिर है कि दुनियाँ के हर मतों और सभ्यताओं में मासिक-धर्म किसी न किसी प्रकार की अपवित्रता से अवश्य जुड़ा हुआ है। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि मासिक धर्म से जुड़े सभी प्रचलनों में स्त्रियों पर किसी न किसी प्रकार का बंधन ज़रूर लगाया जाता है। हालाँकि कई मामलों में ये बंधन अतिक्रमण की सीमा तक पहुँच जाते हैं।
इस प्रकार से दुनियाँ के लगभग सभी मतों और संस्कृतियों में मासिक धर्म से जुड़ा अशुद्धता का बोध दिखाई देता है। चाहे वो संगठित अब्राहमिक मतों से लेकर असंगठित धार्मिक मतों वाले हों या दूर पश्चिम के एस्किमो से लेकर सुदूर पूर्व के साईबेरियायी कबीले वाले, सभी संस्कृतियों, कबीलों, और मतों के किसी न किसी अंश में इस तरह का विचार पाया ही जाता है। हिंदू मत में, जैसा कि हम कुछ अगले लेख में देखेंगे, मासिक धर्म अशौच (विधि मान्य अपवित्रता) से जुड़ा है। पर हिंदू मत में इस विचार को पवित्र-अशुद्ध की अवधारणा के परे ले जा कर, शुद्धीकरण की अवधारणा से जोड़ कर देखा जाता है। फिर भी यह बात साफ़ ज़ाहिर है कि दुनियाँ की सभी संस्कृतियों में मासिक धर्म की धार्मिक मामलों में एक विशेष मान्यता है। इन मान्यताओं के मूल में क्या है, इनकी समानताएँ और विभिन्नताएँ क्या हैं, यह अध्ययन का विषय है। जहाँ एक ओर आधुनिक फ़ेमिनिस्ट इनमें से कई मान्यताओं को (जानबूझ कर) अनदेखा करते आए हैं वहीं दूसरी ओर पुरातनपंथी बिना सोचे-समझे इन मान्यताओं को चरम सीमा तक यंत्रवत ढोए जा रहे हैं।
पर वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य फ़ेमिनिज़म में इसके विशेष महत्व ढूँढने का चलन भी शुरू हुआ है। ऐसा ही एक चलन है रेड टेंट टेम्पल का जिसके तहत मासिक-धर्म से गुज़रती महिलाएँ अपने घर-परिवार से दूर एकांत में एक झोंपड़ी में अपना समय गुज़र सकती हैं। इस प्रकार से पश्चिम में महिलओं को इस बात का भान हो रहा है कि अपने मासिक-धर्म के समय उन्हें ‘अपने लिए’ कुछ समय चाहिए ताकि वो रोज़मर्रा की जद्दोजहद से दूर रह कर अपनी ओर ध्यान दे सकें। इसे “नारी-मुक्ति” उत्सव के रूप में भी मनाया जा रहा है जो, विडम्बना यह है कि, हिंदू मत की कई मान्यताओं से मिलता-जुलता है। इस वजह से हिंदू मत में मासिक-धर्म जुड़ी मान्यताओं के गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है ताकि “आधुनिक” हिंदू अपने मत से जुड़ी मान्यताओं को समझ सकें। मासिक-धर्म का ऐसा ही अध्ययन हम अगले अंक में करेंगे।
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Nithin Sridhar has a degree in Civil Engineering, and having worked in the construction field, he passionately writes about various issues from development, politics, and social issues, to religion, spirituality, and ecology. He is currently Editor of IndiaFacts- a portal on Indian history and culture; He is editor of Advaita Academy dedicated to the dissemination of Advaita Vedanta. He is a Consulting Editor to Indic Today Magazine. He is based in Mysuru, Karnataka. His first book “Musings On Hinduism” provided an overview of various aspects of Hindu philosophy and society. His latest book ‘Samanya Dharma’ enunciates upon general tenets of ethics as available in Hindu texts. However, his most widely read book is “Menstruation Across Cultures: A Historical Perspective” that examines menstruation notions and practices prevalent in different cultures & religions from across the world. He tweets at @nkgrock.