प्रस्तावना
सामान्यतः कुछ पढ़े लिखे लोग यह मान्यता वाले होते है कि, मुघलो और अंग्रेजो ने ही हमे शिक्षित किया और हमे सभ्यता सिखाई। यह लोग ये भी तर्क देते है कि, भारत में सिर्फ कहानियाँ और मंदिरो के सिवा कुछ भी नहीं था। हमारा देश आज ज्ञान-विज्ञान में जो भी है वो अंग्रेजो की कृपा की बजह से है।
लेकिन हमारे देश में कई सालो से सुसंस्कृत सभ्यता थी। और ज्ञान-विज्ञान का भरपूर स्त्रोत हमारे पास था। कुछ ज्ञान सालो से लुप्त होता गया अन्यथा उसके ग्रंथो को कही न कही आक्रांताओ द्वारा नष्ट किया गया। इस लेख में ऐसे ही विज्ञान की एक मुख्य शाखा- रसायन विज्ञान के कुछ तथ्यों को सामने रखने का प्रयास करूँगा।
आधुनिक रसायन शास्त्र का उद्भव
पंद्रहवीं-सोलहवीं शती तक यूरोप और भारत दोनों में एक ही पद्धति पर रसायन शास्त्र का विकास हुआ। सभी देशों में अलकीमिया का युग था। अलकीमिया माने तो किसी भी धातु में से सोना बनाना। पर इस समय के बाद ये यूरोप में (विशेषतया इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस और इटली में) रसायन शास्त्र का अध्ययन प्रायोगिक तौर पर हुआ। प्रयोग में उत्पन्न सभी पदार्थों को तोलने की परंपरा प्रारंभ हुई। और उसके बाद १७८१ में यूरोपीय वैज्ञानिक हेन्री केवेंडिश ने पानी का विद्युत-अपघटन किया। वहां से उन्हें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन वायु की प्राप्ति हुई। वही से आधुनिक रसायनशास्त्र का उद्धव और विकास हुआ।
मेंडेलीफ़ ने उसके बाद आवर्त कोष्टक (Periodic Table) की रचना की। बाद में उसमे आज तक ११४ तत्वों की प्राप्ति हुई है। जबकि भारत का प्राचीन रसायन शास्त्र सिर्फ ७ धातु के अभ्यास और संशोधन के आसपास केंद्रित होने का जानने को मिलता है।
भारत में ईसा पूर्व का रसायन शास्त्र
वेद व उपनिषद में रसायन शास्त्र
जैसा की मैंने आगे विवरण किया है कि, प्राचीन समय में रसायन शास्त्र ७ धातु के अभ्यास और संशोधन के आसपास केंद्रित था। और वह ७ धातु है- सुवर्ण(सोना), रजत(चांदी), ताम्र(तांबा), लोह(लोहा), पारद, सीसा(लेड) और रांगा (टीन). इन सभी धातुओं का उल्लेख प्राचीनतम संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है। ऋग्वेद की कई ऋचाओं में भी स्वर्ण और रजत का मूल्यवान धातु के रूप में स्पष्ट उल्लेख होता है। अर्थर्ववेद के श्लोक में भी धातु का उल्लेख मिलता है।
वेदों की प्राचीनता ईसा से हजारों वर्ष पूर्व निर्धारित की गई है। इससे हम कह सकते है की वैदिक काल यानि कि इसा पूर्व से रसायन शास्त्र का संशोधन और अभ्यास हो रहा है। यजुर्वेद की रचना उपनिषद के काल में हुई थी, ऐसा माना जाता है। छांदोग्य उपनिषद में भी धात्विक मिश्रण का स्पष्ट वर्णन देख सकते है। छांदोग्य उपनिषद में वर्णन है की किस तरह से धातु को मिश्रित करके मिश्र धातु(Alloy) प्राप्त कर सकते है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में रसायन शास्त्र
यह तो पूर्ण रूप से स्पष्ट है की कौटिल्य का समय ईसा पूर्व २५० वर्ष है। उनके २ ग्रन्थ ‘नीतिशास्त्र’ और ‘अर्थशास्त्र’ प्रमाणित है। अर्थशास्त्र के दूसरे अधिकरण अध्यक्षप्रचार के छठे अध्याय में महसूल का विवरण देखने को मिलता है। उसमे लिखित है कि, “सुवर्ण और रजत के अयस्क पदार्थो पर राजा कर लगा सकता है।” इसी ग्रंथ के अन्य कुछ हिस्सों में धातु के अयस्क का खनन, विचरन और खानों के प्रबंधन की व्याख्या भी प्रच्छन रूप से देखने को मिलती है।
ईसा पूर्व के भारतीय जीवन में रसायन शास्त्र का प्रभाव
यदि हम सिंधु घाटी के मिले अवशेषों और ईसा पूर्व में लिखे ग्रंथो का अध्ययन करे तो हम उस समय में धातुओं का उनके जीवन पर क्या प्रभाव था? उसके लिए अभ्यास और संशोधन कैसे हुआ? इन प्रश्नो का उत्तर पा सकते है। मैंने इन धातुओं का भारतीय जीवन पर प्रभाव के बारे में संक्षिप्त में लिखा है।
स्वर्ण: ईसा से 2500 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यताकाल में (जिसके भग्नावशेष मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में मिले हैं) स्वर्ण का उपयोग आभूषणों के लिए हुआ करता था। उस समय दक्षिण भारत के मैसूर प्रदेश से यह धातु प्राप्त होती थी। चरकसंहिता में (ईसा से 300 वर्ष पूर्व) स्वर्ण तथा उसके भस्म का औषधि के रूप में वर्णन आया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्वर्ण की खान की पहचान करने के उपाय धातुकर्म, विविध स्थानों से प्राप्त धातु और उसके शोधन के उपाय, स्वर्ण की कसौटी पर परीक्षा तथा स्वर्णशाला में उसके तीन प्रकार के उपयोगों (क्षेपण, गुण और क्षुद्रक) का वर्णन आया है। इन सब वर्णनों से यह ज्ञात होता है कि उस समय भारत में सुवर्णकला का स्तर उच्च था।
रजत: रजत का मूल्य स्वर्ण से कम माना जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रजत के धातुकर्म और उसके उपयोगो का वर्णन मिलता है। अन्य ग्रंथो में भी रजत के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ है।
तांबा: प्राचीन समय में इसका उपयोग शस्त्रक्रिया के साधन बनाने में होता था, यह बात आयुर्वेद के ग्रंथ में लिखी हुई है।
लोहा: भारत के लोगों को ईसा से 300-400 वर्ष पूर्व लोह के उपयोग ज्ञात थे। तमिलनाडु राज्य के तिन्नवेली जनपद में, कर्णाटक के ब्रह्मगिरी तथा तक्षशिला में पुरातत्व काल के लोहे के हथियार आदि प्राप्त हुए हैं, जो लगभग 400 वर्ष ईस्वी के पूर्व के ज्ञात होते हैं।
टीन (वंग): भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता के काल के प्राप्त धातु पदार्थों में वंग पाया गया है। ऐसा अनुमान है कि उस समय वंग ईरान से आता था। ईसा से पाँच शताब्दी पूर्व आयुर्वेद काल में सुश्रुत में त्रपु (वंग) तथा वाग्भट्ट के अष्टांगहृदय में भी वंग के यौगिक का वर्णन आया है।
सीसा: सीसा बहुत प्राचीन काल से ज्ञात है। इसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। इसका उपयोग भी ईसा के पूर्व से होता आ रहा है।आयुर्वेद में सीसा सप्त धातुओं में है और अन्य धातुओं के समान यह भी रसौषध के रूप में व्यवहृत होता है। इसका भस्म कई रोगों में दिया जाता है। वैद्यक में सीसा आयु, वीर्य और कांति को बढ़ानेवाला, मेहनाशक, उष्ण तथा कफ को दूर करनेवाला माना जाता है।
पारद: भारत में इस तत्व का प्राचीन काल से वर्णन हुआ है। चरक संहिता में दो स्थानों पर इसे ‘रस’ और ‘रसोत्तम’ नाम से संबोधित किया गया है। वाग्भट ने औषध बनाने में पारद का वर्णन किया है। वृन्द ने सिद्धयोग में कीटमारक औषधियों में पारद का उपयोग बताया है।
ईसा के पूर्व में रसायनशास्त्र का स्वतंत्र विकास नहीं हुआ था। परन्तु ईसा के बाद में रसायन शास्त्र का स्वतंत्र विकास भारत में होता रहा। जिसके बारे में संशोधनीय जानकारी में अपने अगले लेख में दूंगा।
References
- History of Chemistry in ancient and Medieval India: Incorporating the History of Hindu Chemistry by P. Ray
- http://vaigyanik-bharat.blogspot.in/2010/06/blog-post_8173.html
- http://panchjanya.com/arch/2009/8/30/File10.htm
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Harshil Mehta has pursued graduation in stream of an electrical engineering at L.D. College of engineering. He is a core team member of the think tank Bhartiya Vichar Manch. He frequently writes commentary and opinions on History, Indology and Politics.