हिन्दू सभ्यता को सर्वांगसंपूर्ण सभ्यता कहना शायद गलत नहीं होगा। और उसमे से एक महत्वपूर्ण अंग है- हमारी कृषि व्यवस्था। और इसी बजह से हमारी भूमि को ‘सुजलाम, सुफलाम’ कहा जाता है।
हिन्दू संस्कृति के दो महाकाव्य रामायण और महाभारत में भी कृषि का उल्लेख मिलता है। रामायण में जब जनक विदेही हल को जोट रहे थे तब उन्हें जमीन में से सीता माता मिली थी। महाभारत में जानने मिलता है कि, श्री कृष्ण के बड़े भाई श्री बलराम को हल चलाने का बहुत शौख था। एवं हल ही बलराम जी का आयुध था।
ऐसा माना जाता है कि, भारत में ९००० ईसापूर्व तक पौधे उगाने, फसलें उगाने तथा पशु-पालने और कृषि करने का काम शुरू हो गया था। शीघ्र यहाँ के मानव ने व्यवस्थित जीवन जीना शूरू किया और कृषि के लिए औजार तथा तकनीकें विकसित कर लीं। कृषि की इसी महत्ता की बजह से हमारे यहां पर प्रकृति और पशु कि पूजा होने लगी।
वेदो में कृषि कि जानकारी
ऋग्वेद और अर्थर्ववेद में कृषि संबंधी अनेक ऋचाएँ है जिनमे कृषि संबंधी उपकरणों का उल्लेख तथा कृषि विद्या का परिचय है। ऋग्वेद में क्षेत्रपति, सीता और शुनासीर को लक्ष्यकर रची गई एक ऋचा (४.५७-८) है जिससे हिन्दू सभ्यता के कृषिविषयक ज्ञान का बोध होता है-
शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लाङ्गलम्।
शनुं वरत्रा बध्यंतां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय।।
शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रयु: पय:।
तेने मामुप सिंचतं।
अर्वाची सभुगे भव सीते वंदामहे त्वा।
यथा न: सुभगाससि यथा न: सुफलाससि।।
इन्द्र: सीतां नि गृह् णातु तां पूषानु यच्छत।
सा न: पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्।।
शुनं न: फाला वि कृषन्तु भूमिं।।
शुनं किनाशा अभि यन्तु वाहै:।।
शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभि:।
शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम्
अथर्ववेद में खाद का भी संकेत मिलता है जिससे पता चलता है कि अधिक फसल पैदा करने के लिए लोग खाद का भी उपयोग करते थे-
संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्
गोष्ठं करिषिणी।
बिभ्रंती सोभ्यं।
मध्वनमीवा उपेतन।।
इसी तरह से अर्थर्ववेद के एक श्लोक से ज्ञात होता है कि उस समय में तीन शस्य धान, तिल और दाल मुख्य थे।
व्राहीमतं यव मत्त मथो
माषमथों विलम्।
एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय
दन्तौ माहिसिष्टं पितरं मातरंच।।
आदि कृषि वैज्ञानिक– पराशर मुनि
पराशर मुनि कि लिखित शैली को देख, माना जाता है कि पराशर मुनि इसा की ८वी शताब्दी में हुए है। पराशर मुनि द्वारा रचित ग्रंथो में ‘कृषि पराशर’, ‘कृषि तंत्र’ और ‘पराशर तंत्र’ मुख्य है। कृषि पराशर’ में कृषि पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव, मेघ और उसकी जातियाँ, वर्षामाप, वर्षा का अनुमान, विभिन्न समयों की वर्षा का प्रभाव, कृषि की देखभाल, बैलों की सुरक्षा, गोपर्व, गोबर की खाद, हल, जोताई, बैलों के चुनाव, कटाई के समय, रोपण, धान्य संग्रह आदि विषयों पर विचार प्रस्तुत किए गए हैं।
ग्रंथ के अध्ययन से पता चलता है कि पराशर के मन में कृषि के लिए अपूर्व सम्मान था। किसान कैसा होना चाहिए, पशुओं को कैसे रखना चाहिए, गोबर की खाद कैसे तैयार करनी चाहिए और खेतों में खाद देने से क्या लाभ होता है, बीजों को कब और कैसे सुरक्षित रखना चाहिए, इत्यादि विषयों का सविस्तार वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है।
केवल इतना ही नहीं, परन्तु कृषि के कुछ साधनो के बारे में वर्णन भी वह करते है। हलों के संबंध में दिया हुआ है कि ईषा, जुवा, हलस्थाणु, निर्योल (फार), पाशिका, अड्डचल्ल, शहल तथा पंचनी ये हल के आठ अंग हैं। पाँच हाथ की हरीस, ढाई हाथ का हलस्थाणु (कुढ़), डेढ़ हाथ का फार और कान के सदृश जुवा होना चाहिए। जुवा चार हाथ का होना चाहिए।
कृषि के ऊपर आधारित उनका प्रथम लिखित ग्रंथ, कृषि की अति सूक्ष्म जानकारी होने के कारण उन्हें आदि कृषि वैज्ञानिक कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी।
कृषि के अन्य पौराणिक ग्रंथ
कृषि के अन्य ग्रंथो में सुरपाल द्वारा लिखित ‘वृक्षार्युवेद’, चक्रपाणि मिश्र द्वारा लिखित ‘विश्व वल्लभ’, कश्यप द्वारा रचित ‘कश्यपीयकृषिसूक्ति’ और सारंगधर लिखित ‘उपवन विनोद’ मुख्य है। उसके अलावा भी संस्कृत के कई सुभाषितों, रत्नकणिका और श्लोको में कृषि का वर्णन देखने को मिलता है। कृषि के संदर्भ में नारदस्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, अग्नि पुराण, गरुड़ पुराण आदि में भी उल्लेख मिलते हैं।
हमारी कृषि के संदर्भ में सर वाकर लिखते हैं “भारत में शायद विश्व के किसी भी देश से अधिक प्रकार का अनाज बोया जाता है और विविध भांति की पौष्टिक जड़ों वाली फसलों का भी यहाँ प्रचलन है। हम भारत को क्या दे सकते हैं? क्योंकि जो खाद्यान्न हमारे यहाँ हैं, वे तो यहाँ हैं ही, और भी अनेक प्रकार के अन्न यहाँ हैं। ”
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Harshil Mehta has pursued graduation in stream of an electrical engineering at L.D. College of engineering. He is a core team member of the think tank Bhartiya Vichar Manch. He frequently writes commentary and opinions on History, Indology and Politics.