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एक धर्मनिरपेक्ष जगत में कुंभ का रक्षण-पोषण

यद्यपि कुछ लोग कुंभ मेला को पवित्र मानते है, लेकिन बहुत सारे लोगों के लिए यह अजीबोग़रीब और विचित्र अंधविश्वास, जो अर्थहीन अनुष्ठान, प्रदूषण, शोषण और सामाजिक स्तरीकरण से भरा हुआ सम्मेलन मात्र है। इसलिए कुम्भ मेले के पीछे की औचित्य को समझने के लिए इसे स्वयं के नज़र से देखना ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

हालांकि कुंभ मेला को अपनी प्राचीनता, विविधता और इसकी विशालता के कारण इसे विश्व का सबसे बड़ा सम्मेलन कहा जा सकता है, लेकिन इसके बावजूद वर्तमान में इसपर बहुत प्रश्न किए जाते रहे हैं।इसका कारण यह है कि आज के दौर में हर बात में तर्कसंगतता और तर्क की तलाश करने की व्यापक प्रवृत्ति व्याप्त हो रही है, जबकि अगर सही अर्थों में देखा जाए तो  हमारे जीवन का अधिकांश भाग भावनाओं की तरह तर्कहीन है। यह उल्लेख करने ज़रूरत नहीं है कि दुनिया भर में लोग कुंभ मेले को अपने स्वयं के धर्मनिरपेक्ष विश्व विचारों के औचित्य से देखेंगे। इसे देखने के और भी कई दृष्टियाँ हैं, जैसे नारीवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी, फ्रायडियन और भी बहुत कुछ। यद्यपि कुछ लोग कुंभ मेला को पवित्र मानते है, लेकिन बहुत सारे लोगों के लिए यह अजीबोग़रीब और विचित्र अंधविश्वास, जो अर्थहीन अनुष्ठान, प्रदूषण, शोषण और सामाजिक स्तरीकरण से भरा हुआ सम्मेलन मात्र है। इसलिए कुम्भ मेले के पीछे की औचित्य को समझने के लिए इसे अपने नज़र से देखना ज़्यादा महत्वपूर्ण है।इसके अलावा, हम किसी दिन सबरीमाला में भी उसी तरह का जोखिम उठा सकते हैं, जहां परंपरा की बात को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जाता है।

कुंभ मेला कब शुरू हुआ, इसके बारे में कुछ भी निश्चितता के साथ नहीं कह सकता। लेकिन यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि यह अपने आप में एक पुरातन परम्परा है, जो दसों हज़ार से अधिक वर्षों से अखंड चली आ रही है। हर तीसरे वर्ष में चार अलग अलग स्थानों पर इसका आयोजन होता है: हरिद्वार, प्रयागराज, नाशिक और उज्जैन। इस प्रकार, प्रत्येक 12 वें वर्ष में इन चार स्थानों पर महाकुंभ मेला आयोजित किया जाता है। अर्ध कुंभ मेला हर दो साल में केवल दो स्थानों, हरद्वार और प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। इन चार स्थानों पर चार अलग अलग नदियाँ हैं: हरिद्वार में गंगा, प्रयागराज में गंगा, यमुना और विलुप्त सरस्वती का संगम, नासिक में गोदावरी और उज्जैन में शिप्रा। हरिद्वार में इस मेले का आयोजन तब होता है जब बृहस्पति कुंभ राशि में होता है और इसलिए इसे कुंभ के नाम से जाना जाता है। नासिक और उज्जैन मेला आमतौर पर मानसून के पहले या बाद में आयोजित किया जाता है और इस वक़्त  बृहस्पति सिंह राशि में होता है इसलिए इसे सिंहस्थ कुंभ मेला कहा जाता है। प्रज्ञागराज में मेला सर्दियों में आयोजित किया जाता है और इस वक़्त बृहस्पति माघ मास में होता है। इसलिए इसे माघ मेला भी कहा जाता है।आज के दौर में सभी चार मेलों को कुंभ ही कहा जाता है। इस साल प्रयागरज में मनाया जाने वाले अर्द्धकुंभ में लगभग 12 करोड़ से अधिक आगंतुकों के आने की उम्मीद की जा रही है। इस हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक त्योहार है।

अनुष्ठान का औचित्य

कुंभ मेला एक अनुष्ठान है जिसमें सत्संग, पूजा, सेवा और नदी में स्नान  करना पवित्र माना जाता है। अधिकांश लोग जो खुद को आधुनिक मानते हैं वह योग और ध्यान जैसे आध्यात्मिक अभ्यास का समर्थन तो करते है पर अनुष्ठान जैसे धार्मिक पद्धतियों की अवहेलना करते हैं। ऐतिहासिक रूप से अन्य धर्मों द्वारा मूर्ति पूजा की आलोचना ने भी अनुष्ठानों के खिलाफ प्रतिक्रिया को बढ़ावा देने का काम किया है। आर्य समाज की स्थापना करने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती भी मूर्ति पूजा के ख़िलाफ़ थे। यहाँ तक कि महात्मा गांधी भी इसके विरुद्ध थे। हालांकि, हिंदू शास्त्रों में अनुष्ठानों का एक विशिष्ट उद्देश्य बताया गया है और इसकी तर्कसंगत व्याख्या है। यह योग और ध्यान के रूप में आत्म-प्राप्ति के लिए अग्रणी प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। इसलिए इसके बारे में विस्तृत रूप से बात करते हैं।

हिंदू ब्रह्मांडीय वास्तविकता, एक अतिरिक्त ब्रह्मांडीय भगवान के विचार को खारिज करती है। वास्तविकता एक ब्रह्मांडीय चेतन सिद्धांत है जो अनुपचारित, अविनाशी और सर्व-व्यापी है। इसे ब्राह्मण कहा जाता है और इसको हिंदू त्रिमूर्ति के निर्माता ब्रह्मा के साथ जोड़कर भ्रमित होने के आवश्यकता नहीं है। इस ब्रह्माण्ड में जो भी निर्मित है, वह सब कुछ ब्रह्म का ही एक रूप है, इससे सब कुछ उत्पन्न होता है, सब कुछ उसमें रहता है और सब कुछ उसी में बसता है। ब्रह्मांड, प्रकृति और मनुष्य, सब एक हैं। सबकुछ ब्राह्मण में ही बसता है। इशो-उपनिषद का पहला पहला वचन कहता है:

“इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी चलता है, जिसमें ब्रह्मांड का खुद आगे बढ़ना भी शामिल है, वह उसी में है और उसी में बसता है।”

ब्राह्मण हिंदू विचार मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार की ओर जाता है। यह जीवन का एक उद्देश्य और एक ऐसी अवस्था है जहां हम ब्रह्मांड की एकता और ज्ञान के साथ एकात्म का अनुभव करते हैं और हमारे और ब्रह्म के बीच कोई अलगाव नहीं होता है। इस विचार को चार उपनिषदिक महावाक्यों से संक्षिप्त रूप से लिया गया है:

ऐतरेय उपनिषद के प्रजन्म ब्राह्मण बताते हैं कि चेतना ब्रह्म है

मांडूक्य उपनिषद के अयम आत्मा ब्राह्मण कहते हैं कि व्यक्तिगत चेतना और लौकिक चेतना एक ही है

तत त्वम असि, चंदोग्य उपनिषद के इस प्रसिद्ध महावाक्य में कहा गया है कि आप महसूस कर सकते हैं कि आप वही हैं

बृहदारण्यक उपनिषद से “अहम् ब्रह्मास्मि” उसी की आनन्दमयी अभिव्यक्ति है कि जिसने महसूस किया है, वह ब्रह्म है।

मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति में कर्म (अनुष्ठान, बलिदान और सांसारिक क्रिया) और ज्ञान (ज्ञान और ध्यान) की भूमिका पर शास्त्रों में कई संदर्भ हैं। दोनों अभ्यास बाहरी और आंतरिक जीवन के बीच शाश्वत बहस का हिस्सा हैं। बुद्धिजीवियों ने कहा है कि जो लोग बाहरी जीवन पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करते हैं, वे लालसा के अंतहीन जंजाल में फँस जाते हैं और अंततःदुःख पाते हैं, जबकि जो लोग केवल आंतरिक रूप से ध्यान केंद्रित करते हैं वे दूरस्थ और पुनरावर्ती होते हैं। इसलिए शास्त्र कर्म और ज्ञान दोनों को साथ लेकर चलने की ओर संकेत करते हैं। ईसा उपनिषद का बारहवां श्लोक यही इशारा करता है:

“गहरे अंधकार में वे प्रवेश करते हैं जो भौतिक दुनिया की पूजा करते हैं। उससे भी अधिक अंधेरे में वो लोग पहुँचते हैं, जो भौतिक दुनियाँ के विरुद्ध होने में प्रसन्नता व्यक्त करते हैं ”

चित्त शुद्धि या मन की शुद्धि को सक्षम करके अनुष्ठान हमें ज्ञान के लिए तैयार करते हैं। उत्तेजित मन कभी भी चिंतनशील नहीं हो सकता। जब हम अनुष्ठानों का अभ्यास करते हैं तो हम अपने विचारों को सांसारिक गतिविधियों के प्रलोभनों और विद्रोहों से दूर करते हैं, ऊँची सोच को आत्मसात करते हैं, दूसरों की सेवा करते हैं और इस तरह हमारे मन को शांत करते हैं। शांत मनवाला व्यक्ति उच्च ज्ञान और ध्यान को आगे बढ़ाने के लिए अग्रसर होता है।

एक क्रिकेट खिलाड़ी को पहले स्कूल की टीम, जूनियर टीम और राज्य की टीम के लिए खेलना होता है, उसके बाद ही वे देश के लिए खेल सकते हैं। इसी तरह, मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार की यात्रा में अनुष्ठान पहला कदम है।

जो लोग ध्यान करते हैं, उन्हें अपना अभ्यास उन लोगों पर नहीं थोपना चाहिए, जो इसके लिए अभी तैयार नहीं हैं। अनुष्ठान करने वालों पर उपहास करने के बजाय, उन्हें भागवत गीता (III.2.2) में कृष्ण की सलाह पर ध्यान देना चाहिए

“किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को एक अज्ञानी के दिमाग को अस्थिर करने की कोशिश नहीं करना चाहिए। जो कर्म के साथ जुड़े हुए हैं, उन्हें उन सभी कार्यों को भक्ति के साथ पूरा करने को कोशिश करनी चाहिए।”

अंधविश्वास या गहन खगोल ज्ञान?

कहा जाता है कि अगर हम कुंभ मेले में पवित्र नदियों में स्नान करते हैं तो हमें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो लोग अनुष्ठानों को तर्कहीन मानते हैं वह इसे भी  अंधविश्वास समझ सकते हैं। हालांकि यह पूछना पूरी तरह से वाजिब होगा  कि क्या इसका कोई तर्कसंगत स्पष्टीकरण है? सूर्य शास्त्र के अनुसार, उस समय के ग्रहों के विन्यास के कारण कुंभ मेले के विभिन्न स्थानों पर पंच-तत्व सबसे अधिक सक्रिय होते हैं। इसके अलावा, सभी तत्वों में पानी एक ऐसा तत्व है जिसमें सबसे मजबूत याददाश्त शक्ति है। पानी के इस गुण को समझने के लिए वैज्ञानिक शोध चल रहा है। होम्योपैथी ने हमेशा इसका समर्थन किया है। इसके अलावा, प्राचीन भारत से कई उदाहरण हैं, जिसे पहले विज्ञान नहीं समझा जाता था, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से अब स्वीकृत है।उदाहरण के लिए, गैर-दोहरी चेतना या वेदांत जिसे ब्राह्मण कहता है, आज वैज्ञानिक अध्ययन का एक क्षेत्र है। मेला के मौसम में श्रद्धा भाव या भक्ति के साथ स्नान करने से संस्कार और वासनाएँ दूर हो जाती हैं और भक्त को संचित कर्मों से मुक्त करता है। नदी की चिकित्सा शक्ति और एकता का दर्शन के कारण ही नदियों को पवित्र माना जाता है। यही कुंभ मेले का महत्व है।अधिकांश हिंदू परंपराओं की तरह, कुंभ मेले में भी एक शास्त्रिक व्याख्या है।

कुंभ मेला औसतन पैंतालीस दिनों का होता है, इसके लिए एक तर्कसंगत स्पष्टीकरण भी है।इसका कारण यह है कि बृहस्पति पैंतालीस दिनों के बाद कुंभ राशी से दूर जाने लगते हैं।

कुंभ मेले में शैक्षणिक और मीडिया रुचि

जब हार्वर्ड कुंभ मेला प्रोजेक्ट प्रकाश में आया तो यह राजीव मल्होत्रा का ध्यान अपनी ओर खींचा। 2015 के लेख “कुंभ मेला जोखिम में क्यों है” नामक शीर्षक उन्होंने लिखा कि भारतीय संस्कृति में पश्चिमी हस्तक्षेप का एक लंबा इतिहास रहा है। शुरुआत में तो यह एक सौम्य फैशन में शुरू होता है लेकिन जल्द ही एक खतरनाक मोड़ ले लेता है। शिक्षाविद, वामपंथी, मिशनरीऔर संस्थाएं पश्चिमी दृष्टिकोण के अतिरंजित आध्यात्मिक महत्व से रहित हिंदू परंपराओं पर अध्ययन और शोध करते हैं तथा इसका परिणाम अनुमानित होता हैं। यह हमेशा जाति की असमानताओं, लैंगिक भेदभाव, धर्म से अधिक व्यक्ति, पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को इंगित करता है। यह आलोचना अक्सर दार्शनिक पहलुओं पर ध्यान दिए बिना, धर्मनिरपेक्षता की ओर जाता है जो ईसाई मत प्रचारक के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करता है। हमने हाल ही में देखा है कि कैसे तथाकथित लिंग भेदभाव का मुद्दा  एक महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थस्थल सबरीमाला के अपमान का कारण बनी।

हार्वर्ड साउथ एशियन इंस्टीट्यूट का कुंभ मेले पर यह शोध प्रस्ताव, मल्होत्रा की शोध पत्र को रेखांकित करता है।इस शोध के अनुसार:

“यह मेला कई पूरक क्षेत्रों में अंतःविषय अनुसंधान को प्रेरित करता है। तीर्थयात्रा और धार्मिक अध्ययन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, डिजाइन, संचार, व्यवसाय, और बुनियादी ढाँचा इंजीनियरिंग इत्यादि ऐसे कई विषय है, जिसके लिए यह मेला एक जटिल वातावरण का निर्माण करते हैं जिसे कठोर प्रलेखन और मानचित्रण के माध्यम से समझा जा सकता है। ”

शोधकर्ताओं ने जो अध्ययन करने का प्रस्ताव दिया है, उनमें से कुछ हैं:

१. विभिन्न आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के तीर्थयात्रियों के समूह एक-दूसरे से कैसे संबंधित हैं? क्या इसके भीतर एक स्तरीकरण है जो विभिन्न प्रकार के तीर्थयात्रियों को एक दूसरे से अलग करता है?

२. मेला अपने पहचान, राष्ट्रीय और धार्मिक पहचान के बीच तनाव पर सामंजस्य कैसे स्थापित करता है?

३. इसके प्रमुख धार्मिक अंग (व्यक्ति और संस्थान) कौन हैं और एक बड़ी जनसंख्या पर उनका क्या प्रभाव है? तीर्थयात्रियों, पर्यटकों, प्रेस और मेला के संचालन संगठनों के साथ उनके संबंधों में क्या अंतर हैं?

४. सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ और पर्यावरण प्रदूषण

अब तक का मीडिया की सक्रियता लगभग मिला जुला है। जहां एक बड़े वर्ग ने उत्कृष्ट सुविधाओं और प्रशासन की सराहना की है, वहीं कुछ ने नकारात्मक धारणा बनाने की कोशिश भी की है।

बीबीसी न्यूज ने 14 जनवरी को अवसंरचना, अच्छे परिवहन और रहने की व्यवस्था, उत्कृष्ट स्वच्छता, सुरक्षा, खाद्य आपूर्ति और अस्पताल के बुनियादी ढांचे में सुधार की सराहना की है।

दूसरी ओर बिजनेस स्टैंडर्ड ने नकारात्मक धारणा बनाने का प्रयास किया है। 22 जनवरी को इसमें एक शीर्षक “क्या कुंभ मेला उत्तर प्रदेश की बेरोजगारी की समस्या को दूर किया जा सकता है” नामक सम्पादकीय के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गयी है कि इस मेले में भक्तों की इतनी बड़ी उपस्थिति का कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है। इस तरह से कुम्भ मेले  कोबेरोजगारी से जोड़कर उसकी पवित्रता दिखाने के बदले उसको नकारात्मक तौर पर दिखाने की कोशिश की गई है।

21 दिसंबर को रेउटर द्वारा प्रकाशित बिजनेस स्टैंडर्ड के एक अन्य लेख का शीर्षक हैं, पवित्रता और राजनीति: जनवरी में कुंभ में भाग लेंगे 10 करोड़ से अधिक लोग। यह लेख कुंभ का राजनीतिकरण करने की कोशिश करते हुए यह कहता है कि अर्ध कुंभ मेले को हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा सरकार के घटते प्रसिद्धि को बढ़ाने के लिए इसे बढ़ावा दिया गया है और इसके तहत हिंदूप्रभुत्व का जश्न मनाना जा रहा है तथा मुस्लिम एकता को हाशिए पर डाला जा रहा हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि कुंभ मेले में कभी भी सांप्रदायिक तनाव नहीं देखा गया।

20 जनवरी को इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख आया जिसका शीर्षक है: कुंभ को स्वच्छ रखने वाले लोग।इस लेख के द्वारा यह दुश-प्रचार किया गया कि कैसे 22,000 सफ़ाई कर्मचारी अमीर तीर्थयात्रियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शौचालयों की सफाई कर रहे हैं।

राजीव मल्होत्रा जी ने चेतावनी दी है कि जहाँ बड़ी संख्या में हिंदू एकत्र होते हैं, वहाँ कैसे ईसाई प्रचारक इसमें प्रवेश करके अपना काम करते हैं। नागालैंड पोस्ट में छापा एक लेख  कुंभ संस्कृति मेला में आमंत्रित नागा दल से आग्रह करता है कि वह नागा संस्कृति का प्रदर्शन करे, ताकि वह इसा मसीह के सुसमाचार का प्रसार कर सके। यह यीशु के संदेश को फैलाना अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानता है और उम्मीद करता है कि एक दिन कुंभ मेला एक महान मिशन केंद्र में बदल जाएगा।

इंजीलवादी परियोजना जोशुआ II के पहले भाग के रूप में, नैशविले के प्रथम बैपटिस्ट चर्च, टेनेसी ने उन शहरों को गोद लिया है जहाँ कुंभ मेला लगता है और स्थानीय लोगों को सक्रिय रूप से धर्म परिवर्तन करता रहा है ताकि आगंतुक अपनी अगली यात्रा के दौरान सेवाओं और आपूर्ति खोजने की कोशिश में अत्यधिक कठिनाई का सामना करें। वे अपना अलग समूह बना रहे हैं और उनकी आवाज भी उठा रहे हैं। ऐसा लगता है कि मीडिया का एक अच्छा वर्ग भी इस हद तक उनके पक्ष में है कि उनकी गतिविधि का विरोध करने वाला कोई भी वर्ग स्वयं को समाचार मीडिया में एक उग्रवादी छवि के रूप में जाना जाता है।

कुंभ मेले के प्रवास के खिलाफ तर्क

उपरोक्त चर्चा से मैंने धर्मनिरपेक्ष दिमाग और इंजीलवादियों द्वारा कुंभ मेले को बदनाम करने के मुख्य विषयों को लिया है:

  1. कुंभ मेले की आत्म-विषयक और आध्यात्मिक प्रकृति को समझने की कोशिश नहीं करने से यह अंधविश्वास के दायरे में पहुंच जाता है।
  2. हिंदू धर्म द्वारा हासिल किए गए संश्लेषण को समझे बिना जाति और वर्ग के तनाव की कहानी समाज को जोड़ने के बजाय समाज को तोड़ने का काम करती है।
  3. हिंदू धर्म द्वारा व्यक्तिवाद के वशीकरण की चिंता वास्तव में उच्चतम व्यक्तिवाद का बोध है।
  4. सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं और पर्यावरण के मुद्दों को त्योहार मनाने से ज़ायद महत्व देना।
  5. गैर-विश्वासियों को उनके विश्वास का सम्मान करने के बजाय धर्मांतरित करने के विचार से कुंभ मेले में प्रवेश करना

आइए हम प्रत्येक विषय का संक्षेप में विश्लेषण करें:

1 कुंभ मेले की आत्म-विषयक प्रकृति को समझने की कोशिश नहीं करने से यह अंधविश्वास के दायरे में आना।

हमने देखा है कि कुंभ मेला एक अनुष्ठान है और आध्यात्मिकता की खोज में अनुष्ठानों की महत्वपूर्ण भूमिका है। शास्त्रों ने खगोलीय सम्बन्धों की व्याख्या की है कि क्यों कुछ शर्तों के तहत नदियाँ रोग हरने वाले गुणों का अधिग्रहण करती हैं। पवित्र उद्देश्य के लिए किया गया सत्संग या लोगों का एक बड़ा जमावड़ा लाभदायक स्पंदन पैदा करता है।

अमेरिका में 1969 में हिप्पी युग के चरम पर, वुडस्टॉक नामक एक प्रसिद्ध संगीत समारोह आयोजित किया गया था। इस पांच दिवसीय उत्सव में 500,000 से अधिक युवा शामिल हुए। उस समय के कई प्रसिद्ध संगीतकारों ने महोत्सव में प्रस्तुति दी। वुडस्टॉक को एक ऐतिहासिक घटना के रूप में चित्रित किया गया है, जो अन्यथा एक विवादास्पद दुनिया में शांति और प्रेम का उदाहरण पेश करता है। कुंभ मेला लगभग तीन सौ गुना बड़ा और नौ गुना अवधि का है और हजारों वर्षों से सद्भाव, शांति और विविधता का उदाहरण रहा है। अगर कोई कुंभ के मेले को इस नजरिए से देखता है तो यह शोध से धर्म-निरपेक्ष ज्ञानवाद का इस्तेमाल करके के आध्यात्मिक पहलुओं को समझा जा सकता है। वैज्ञानिक इस पर शोध कर सकते हैं कि इस तरह की खगोलीयघटनाओं के दौरान नदी का चरित्र बदलता है या नहीं। क्या कुंभ मेले के दौरान प्रतिभागियों का दिमाग़ी साँचा बदलता है? क्या व्यक्तिगत आभा का विस्तार होता है? आध्यात्मिक प्रगति को विभिन्न गुणों (सत्व, रजस, तमस) में हुए बदलाव के पैमाने पर नाप सकते हैं। दिम्मगी रूप से जागृत और भावनात्मक भलाई के उद्धरणों का क्या होता है? इस तरह के गहन शोध से ज्ञान कासमूह और धर्मनिरपेक्ष अनुसंधान विधियों का जुड़ाव हो सकेगा  जाएगा जो आत्म-विषयक प्रभावों को समझने के लिए उपयोगी होगा।

2 हिंदू धर्म द्वारा हासिल किए गए संश्लेषण को समझे बिना जाति और वर्ग के तनाव की कहानी समाज को जोड़ने के बजाय समाज को तोड़ने का काम करती है

कुम्भ मेला की सबसे बड़ी ख़ासियत एकीकरण करना है। जातियाँ, वर्ग, साधु, सिद्ध पुरुष, लैंगिक मिलावट, ये सब एक दूसरे के साथ रहते हैं और एक ही नदी में स्नान करते हैं। यह संपूर्ण ग्रह पर एकता में विविधता का सबसे बड़ा प्रदर्शन है। इस विचार को सामाजिक तनाव में बदलने के लिए घटना देखने वाले के दृष्टिकोण की समस्या है ना कि इस मेले की। लंबे समय से हिंदू धर्म के सम्पूर्ण अर्थ को जातिगत तनावों तक सीमित कर दिया गया है और यही कारण हो सकता है कि धर्म के एकजुट सिद्धांत की अक्सर अनदेखी की जाती है।

2017 में यूनेस्को ने कुंभ मेले को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में अंकित किया। अंतर सरकारी समिति ने देखा: “कुंभ मेला पृथ्वी पर तीर्थयात्रियों की सबसे बड़ी मंडली है। यह त्योहार … सामंजस्य पूर्ण अनुष्ठानों और पवित्र नदियों में पूजा को दर्शाता है..यह मौजूदा मानव अधिकारों के साधनों के साथ तर्क-संगत है, क्योंकि जीवन के सभी क्षेत्रों से लोग बिना किसी भेदभाव के समान उत्सव में भाग लेते हैं। एक धार्मिक उत्सव के रूप में, कुंभ मेले में जो सहिष्णुता और समावेशिता है वह समकालीन दुनिया के लिए विशेष रूप से मूल्यवान है ”

3 क्या व्यक्ति धर्म से उपनिवेशित है

व्यक्ति के धर्म से अलग होने के इस आधुनिक विचार को एक बौद्धिक चर्चा की आवश्यकता है। विवेकानंद के अनुसार, हिंदू विचार कि आप एक सार्वभौमिक व्यक्ति हैं यह कुछ के लिए भयावह हो सकता है। इस विचार से परेशान लोग पूछते हैं कि क्या इससे किसी व्यक्ति का नुकसान होता है। विवेकानंद पूछते हैं कि व्यक्तिगतता क्या है, । अगर शरीर में वैयक्तिकता का विचार निहित है तो आप इसे खो देंगे यदि आपने शरीर का एक हिस्सा खो दिया है। यदि यह आदत में है, तो एक शराबी अपने व्यक्तित्व को खोने के डर से अपनी आदत को नहीं बदलेगा। इसके बजाय विवेकानंद से पता चलता है कि यह सार्वभौमिक है जो सच्ची व्यक्तित्व का आनंद लेता है। आत्म-साक्षात्कार के स्तर पर बहुलता एकता में विलीन हो जाती है। इसलिए व्यक्तिगत विचार को खोने से अलग हिंदू विचार इसे पाने का प्रयास है:

“हम अभी तक व्यक्ति नहीं हैं। हम व्यक्तिवाद की ओर संघर्ष कर रहे हैं, और यही अनंत है, यही मनुष्य का वास्तविक स्वभाव है। “(CWSV- बुक २ पृष्ठ  ८०)

4 सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं और पर्यावरण के मुद्दों को त्योहार मनाने से ज़ायद महत्व देना

वास्तविक रूप से, हजारों वर्षों से कुंभ का जश्न मनाकर बड़ी संख्या में लोगों ने बीमार नहीं हुए। वैज्ञानिक अध्ययन कर सकते हैं कि प्रदूषण के बावजूद नदी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक क्यों नहीं है। इसके अलावा, यदि अध्ययन का उद्देश्य समस्याओं के वैज्ञानिक समाधानों को खोजना है, तो यह स्वागत योग्य है। लेकिन अगर यह परंपरा को विफल करने का एक उपकरण बन जाता है तो यह समस्याग्रस्त है।

5 धर्म-परिवर्तन करने वालों का कुंभ मेले में घुसने और गैर-धर्मावलम्बियों को परिवर्तित करने का प्रयास

यहां दो अलग-अलग मुद्दे हैं। एक ईसाई मान्यता है कि उनका माना गया सत्य ही एकमात्र सत्य है और इस प्रकार वे दूसरों को अपने पाले में लाने के लिए किसी भी तरह का उपयोग करने के लिए बाध्य हैं। दूसरा मुद्दा अधिक समाजशास्त्रीय है। हमें यह जांचने की जरूरत है कि मानव समाज के ताने-बाने के लिए ऐसी धारणा क्या है।

पहले मुद्दे का विश्लेषण करने के लिए मैं स्वामी विवेकानंद की ओर देखता हूँ। धर्म की आवश्यकता इसलिए पैदा होती है क्योंकि सर्वोत्तम धर्मनिरपेक्ष ज्ञान भी हमारी पिपासा को संतुष्ट नहीं कर पाता। हम परम ज्ञान को तरसते हैं, और यही हमारे सभी प्रश्नों का उत्तर देता है। हमें यह विचार हर धर्म में मिलता है और इसीलिए धर्मनिरपेक्ष ज्ञान पर धर्म श्रेष्ठता का दावा करते हैं। लेकिन धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष ज्ञान के बीच की इस लड़ाई में, प्रायः धर्मनिरपेक्ष ज्ञान की जीत होती है क्योंकि यह तर्क और ज्ञान-मीमांसा से युक्त है। जैसे-जैसे व्यक्ति की तार्किक आयु बढती है, लोगों का ‘किसी भी बात पर विश्वास करने’ से मोहभंग हो जाता है और धर्मों ने इसके विरुद्ध कोई प्रभावी विकल्प नहीं दिया है।

धर्मों के बीच एक दूसरे पर श्रेष्ठता का दावा करने की लड़ाई भी है। हालांकि, इसके लिए वे जो प्रमाण देते हैं वह असंतोषजनक है। वे कहते हैं कि मेरी विचारधारा श्रेष्ठ है क्योंकि मेरी पुस्तक ऐसा कहती है। आज, तर्क के युग में यह स्वीकार्य नहीं है। पर क्या इसका और कोई उपाय है? है, अगर हर धर्म विज्ञान की तरह ही अपने आप को सही साबित करने के लिए तैयार हों। धर्मों को खुद को इस तरह की जांच के लिए आगे आना चाहिए।

विवेकानंद तर्क के दो सिद्धांत बताते हैं। पहला यह है कि किसी विशेष विचार को सामान्य विचारों द्वारा वर्णन किया गया है। दूसरे शब्दों में किसी विशेष विचार को तर्कसंगत रूप से व्यापक किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि एक सेब गिरता है, तो यह एक अजीब घटना हो सकती है, लेकिन यदि सभी सेब गिरते हैं, तो इसका मतलब है की कोई मूलभूत नियम से कार्य होता है, इस मामले में यह नियम गुरुत्वाकर्षण है। दूसरा सिद्धांत यह है कि किसी घटना की व्याख्या आंतरिक होनी चाहिए। हमारे सेब के उदाहरण में, यदि आप एक सेब फेंकते हैं और यह गिरता है तो आप विश्वास कर सकते हैं कि एक भूत ने इसे नीचे खींच लिया। यह एक बाहरी स्पष्टीकरण है और तर्कसंगत मस्तिष्क के लिए यह तर्कसंगत नहीं है। लेकिन इस घटना के लिए गुरुत्वाकर्षण एक आंतरिक व्याख्या है, यह वस्तु की प्रकृति है। सभी प्रकार के विज्ञानों में हम पाते हैं कि घटनाओं को ऐसे समझाया जाता है कि उसके भीतर क्या चल रहा है।

अब हम इस सिद्धांत को ईसाई धर्म के भगवान पर लागू करते हैं, जो ब्रह्मांड के बाहर निवास करते है, और जो हिंदू धर्म के आंतरिक चैतन्य सिद्धांन्तों को भेदना चाहते हैं। ईसाइयत का मानना ​​है कि ब्रह्माण्ड के बाहर बैठे उनके ईश्वर ने ब्रह्मांड को शून्य से निर्मित किया है और स्वयं वे इससे बहार हैं। यह व्यापकता के सिद्धांत की अवहेलना करता है। आप एक बिंदु तक सब कुछ व्यापक कर सकते हैं पर फिर एक अवरोध आता है क्योंकि भगवान सब कुछ से बाहर है। यह ‘तर्क का पहला सिद्धांत’ के साथ ही असंगत है। दूसरी ओर, ब्रह्मण हर उस चीज का मूल है जिसका यहाँ अस्तित्व है। यह इस प्रकार ‘तर्क का पहला सिद्धांत’ के अनुरूप है। दूसरा सिद्धांत, कि किसी घटना की व्याख्या आंतरिक होनी चाहिए, ब्रह्मांड के बाहर बैठा भगवान का सिद्धांत इसपर खड़ा नहीं उतरता। सृष्टि की यह व्याख्या सेब को नीचे खींचने वाले भूत के समान है। दूसरी ओर, ब्रह्मण उस स्थिति की उचित व्याख्या करता है। जैसा कि हमने ईसा उपनिषद के श्लोक में देखा, यह पूरी सृष्टि को प्रभावित करता है। सभी का उद्गम इसी से है, इसी में सब स्थित रहते हैं और वापस उसी में विलीन हो जाते हैं।

इसलिए ईसाइयों का दावा है कि, उनके मामले में, तर्क सत्य का आधार नहीं है, अतः हमें इसे विश्वास और हठधर्मिता के दायरे में लाना होगा। अन्य धर्मों में घुसपैठ के पीछे का उनका तर्क आतंरिक और  अपूरणीय रूप से त्रुटिपूर्ण है। मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि हिंदू दर्शन अन्य दर्शनों के विरोध में नहीं है। यदि एक विश्वास उनके अनुयायियों को सांत्वना देता है तो वे उनमें विश्वास करें। यहाँ मेरे कहने का तात्पर्य इसाई मत की अन्य मतों पर श्रेष्ठता का विरोध है न कि स्वयं इसाई मत।

इसके अलावा, इतिहास इसका साक्षी है कि आक्रामक कार्यशैली समाज के ताने-बाने में तनाव पैदा करता है जो हिंसा और युद्धों की ओर ले जाता है। इसलिए सद्भाव के लिए इन मतों का आक्रामक दृष्टिकोण समाप्त होना चाहिए। यह पूरी तरह से न्यायसंगत भी है कि जो संस्कृति आक्रामकता का शिकार हो रही है वह आत्मरक्षा के लिए अपने चारों तरफ सुरक्षा कवच बनाए और आक्रामकता के विरुद्ध सारे वैध साधनों का उपयोग करे।

क्यों और कैसे कुंभ मेले की रक्षण-पोषण किया जाना चाहिए?

कुंभ मेला हिंदू सृष्टि-विज्ञान का एक सूक्ष्म दर्शन है। यह सृष्टि की एकता और आकाशीय पिंडों एवं जीवन की आपसी निर्भरता प्रदर्शित करता है। यह बिना किसी लैंगिक एवं स्तर आधारित भेदभाव के हर्ष और उत्साह के साथ एकत्व का उत्सव मनाता है । शांति और भाईचारा वुडस्टॉक उत्सव से कहीं बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। यह एकता में विविधता को एकीकार करने का सबसे बड़ा जीवित उदाहरण है। इसी कारण से यूनेस्को के तहत अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए अंतर-सरकारी समिति ने मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची पर कुंभ मेले को स्थान दिया है।

अन्य वैचारिक दृष्टिकोणों द्वारा कुंभ मेले की कथित विकृति स्वाभाविक रूप से संबंधित हिंदुओं को चिंतित करती है। हममें इस बात की स्पष्ट समझ होनी चाहिए कि इन कथित खतरों का प्रत्युत्तर किस प्रकार से दिया जाना चाहिए, जो हमारी पहचान के अनुकूल हो। पहले हमें यह समझना चाहिए कि हिंदू धर्म की आलोचना कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल में चार्वाक के भौतिकवादी दर्शन ने हिंदू धर्म पर गंभीर हमला किया। बाद में हिंदू धर्म इस्लाम और ईसाई धर्म दोनों के आक्रमणों और अधीनता की चोट सहकर भी बच गया। मेरा तर्क यह है कि हमें हिन्दू धर्म के सामर्थ्य के अनुरूप वर्तमान चुनौतियों का जवाब देना चाहिए।

आध्यात्मिक स्तर पर, धर्म का ज्ञान ब्रह्मांड में अंतर्निहित है। यह कोई ऐसी चीज नहीं जिसकी हिंदुओं ने कल्पना की हो। यह स्वयं प्रत्यक्ष है और किसी को भी प्रयास करने पर इसका अनुभव हो सकता है। इसलिए धर्म अविनाशी है। इस अनुभूति का हमें धर्म के पुनर्जागरण की दिशा में काम करने के लिए एक संबल की तरह प्रयोग करना चाहिए।

बौद्धिक स्तर पर धर्म की रक्षा का सबसे अच्छा तरीका तर्क है। कथानक को बौद्धिक शक्ति के साथ नियंत्रित करें। हम अपने प्राचीन एवं आधुनिक ऋषियों से प्रेरित हों। असंख्य हिंदू प्रथाओं के पीछे तर्क ढूंढें और इसे तार्किक रूप से पेश करें। गहरे अर्थ की खोज मौलिक है। हिन्दू धर्मं को मानव के गहनतम प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए पेश करें।

अस्तित्व के स्तर पर हमें हिंदू धर्मों को अन्य आक्रामक विचारधाराओं से सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए। धर्म की स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं कि अन्य लोगों के धार्मिक परिवेश में घुसपैठ किया जाय। जिस संस्कृति का दोहन हुआ हो उसे सतर्कता और कानूनी रक्षा हासिल करने का अधिकार है।

अगर हम चाहते हैं कि पृथ्वी का सबसे बड़ा उत्सव इस पवित्र भूमि में अपना शानदार रूप से मनाया जाय, तो हमें एकजुट होकर और होशियारी से कुंभ मेले और उसके तंत्र को वर्तमान और भविष्य में सुरक्षित रखना होगा ।

The article has been translated from English into Hindi by Kripal Gaurav

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