पिछले १० या १५ सालों से “विकास” नाम का शब्द बार बार सुनने में आता है | हर किसी को विकसित होना है | चाहे लोग हो, समाज हो या देश | यह विकास क्या होता है ? यह कभी पता नहीं चल पाया , क्योंकि वो भी खुश नहीं जो गाँव में हैं और वो भी खुश नहीं जो शहर में हैं तथा वो भी खुश नहीं जो विदेश में हैं | फिर विकास के गीत गाकर आखिर मिला क्या , यह सोचने पर मुझे मजबूर होना पढ़ा | सोचा थोडा विकास के विषय में पढता हूँ और जानता हूँ कि विकास आखिर है क्या ?
जब पढना शुरू किया तो पता चला के द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह शब्द प्रयोग किया था | जिसमे उन्होंने कहा था- “हम पश्चिम के देश मुख्यतः अमेरिका विकसित देश है और बाकी सब अविकसित या विकासशील देश हैं |” चूँकि यह देश द्वितीय विश्वयुद्ध जीते हुए देश थे तो सभी गुलाम देशों ने या गरीब देशों ने इनकी बात मान ली | तथा वहीँ से यह पैमाना तय हो गया कि विकसित होना मतलब पश्चिम और अमेरिका में जो होता है वैसा होना और अविकसित वो लोग हैं जो अपना खुदका कुछ करते हैं | इसी से फिर विकास के पैमाने तय भी अमेरिका के और पश्चिम के पैमानों के हिसाब से होने लगे जैसे जीडीपी, कोकाकोला-बर्गर, अंग्रेजी बोलना , सूट टाई पहनना- यह सब विकसित और सभ्य होने के पैमाने के रूप में देखा जाने लगा | जो इनकी नक़ल अधिक करे वो उतना बड़ा विकसित चाहे, वो व्यक्ति हो या देश |
यह पढने और समझने के बाद मुझे बहुत दुःख हुआ कि मेरा भारत भी एक ऐसे ही जाल में फँस गया और ना सिर्फ फँस गया बल्कि इतने सालों तक पश्चिम की तरह के विकास का अनुसरण और अन्धानुकरण करते करते गुलामी की हीन भावना से इतना भर गया कि यहाँ के लोगो को अपनी हर चीज को अपना कहने में शर्म आने लगी | यहाँ तक के अपनी भाषा लिखने तथा पढने में भी लोगों को हीनता तथा शर्म महसूस होने लगी | आज के भारत की हालत पर यदि गौर किया जाय तो अंग्रेजी बोलना, मेक्डोनाल्ड में खाना खाना, सूट टाई आदि पहनना आदि सभ्यता की निशानी माने जाते हैं और इसके उलट यदि कोई देश की भाषा में बात करे , साधारण भोजन करे एवं साधारण वस्त्र पहने तो उसे उतनी इज्जत नहीं दी जाती या बुद्धिजीवियों में बैठाने के लायक भी नहीं समझा जाता | आज बुद्धिजीवी वही है जो या तो आई.आई.टी. , आई.आई.एम्. से पीएचडी करके अंग्रेजी में बाते कर रहा हो या फिर इनसे भी बढ़ बुद्धिजीवी वो है जो विदेश से कोई भी डिग्री लेकर आ गया हो | इनका देश के गाँव तथा सभ्यता या संस्कृति से जुड़ाव ना के बराबर होने के बाद भी यह लोग गाँव के बारे में पीपीटी और सेमीनार करके करोडो डकार लेते हैं | वो लोग गाँव के और देश के बारे में नीतियाँ बनाते हैं जिन्होंने देश का एक जिला भी पूरा नहीं घुमा होता तथा जिन्हें उनके खुदके जिले में कितनी तहसीले या गाँव हैं इसकी भी जानकारी नहीं होती | डिग्रीयो के जाल में पूरी शिक्षा व्यवस्था फंसी हुई है | जो जितना अधिक विदेशी वो उतना अधिक धन पाने योग्य हो गया है |
कला के क्षेत्र में भी आज कलाकार की कला इस बात पर आधारित होती है कि वो कला को कितना बेच पाता है | फिल्म कैसी है यह मायने नहीं रखता , बल्कि यह मायने रखता है उसने कितने पैसे कमाए | आज लेखक मायने नहीं रखता, बेस्ट सेलर मायने रखता है | पश्चिमी देश इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं के मेगसेसे, ऑस्कर आदि अवार्ड उन्ही को मिले जिन्होंने भारत की किसी कमी को उजागर किया हो ना की उन्हें जिन्होंने भारत की किसी अच्छाई पर काम किया हो | अतः पैसे और धन के अभाव में कलाकार अपना जमीर, कला और देशभक्ति को बेचकर देश की कमियों पर संगीत, कवितायेँ, फिल्मे , पुस्तकें आदि लिख रहे हैं | ऐसा नहीं है कि वो देशद्रोही हैं या गद्दार हैं | बल्कि सच तो यह है के उनके हुनर की क़द्र करने वाले राजा महाराजो के शासन अब इस मुल्क में नहीं हैं | अतः भूखे मरने की जगह उन्होंने पश्चिम की भीख से अपने परिवार पालना उचित समझ लिया है |
अकादमिक स्तर पर भी इस छदम नव विकास की जड़े गहरी पढ़ी हुई हैं | यदि आपके दिमाग में कोई मौलिक विचार है जो अब तक किसी ने नहीं सोचा या लिखा तो आप उसे अपने तक ही रखिये , क्योंकि क़द्र उसकी है जो १०-२० विदेशियों के रिफरेन्स के साथ बात को लिखे | आप कुछ मौलिक सोचने का दूह्साहस भी कैसे कर सकते हैं ? आपको सिर्फ वो सोचना है जो दुनिया को पहले से पता है | यदि आप पश्चिमी देश से नहीं हैं तो कुछ भी नया कहने की सोचिये भी मत क्योंकि उसका इतना मजाक उड़ाया जाएगा कि या तो आप काम छोड़ दोगे या फिर सोचने लगोगे मैंने ही कुछ गलत कह दिया | अकादमिक बहस के पैमाने पश्चिम तय करता है और हम उनकी नक़ल करते हैं | आपकी मौलिक बात एक तरीके से भारतीय मान सकते हैं जब वो बात कोई पश्चिम का व्यक्ति या कोई आपके यहाँ का आई.आई.टी., आई.आई.एम्. का व्यक्ति चोरी करके अपने नाम से विदेशी जर्नल में छपवा ले या पेटेंट करवा ले | फिर विदेश से लौट कर आने पर वह चीज योगा, मार्शल आर्ट या बासमती की तरह फेमस हो जायेगी |
स्टेटिस्टिक्स या सांख्यिकी भी इसी तरह की एक मुर्खता का खेल है | जिसमे 100 में से ५ लोगों से पूछकर कोई भी सर्वे कर लिया जाता है और कहा जाता है के पूरे 100 लोगों की राय यही है | दुनिया के 99 प्रतिशत सर्वे पक्षपाती होते हैं जिनमे पूछने वाले ने पहले से ही सोच रखा होता है के उत्तर में क्या लाना है तथा उसीको वो सांख्यिकी नाम की मुर्खता से सिद्ध कर देता है और इसमें ४ – ५ अंग्रेजी के शब्द लपेट कर दुनिया को ऐसा मुर्ख बना देता है कि सब वही सोचते हैं | मार्केटिंग, मीडिया और एडवरटाइजिंग ऐसी चीजो को इतनी बार परोसते हैं कि बाकी लोग भी इस झूठ को ही सच मानने लगते हैं | कभी टूथपेस्ट में नमक खराब हो जाता है तो कभी अच्छा | कभी देसी गाय का घी बेचा जाता है तो कभी गाय का देसी घी |
किन मूर्खताओं में हम फंसे हैं समझ नहीं आता | राजनीति में भी या तो आप लेफ्ट हो या राईट , दुनिया बदलनी है तो या तो पूंजीवाद चुनो या साम्यवाद | यदि मै ना लेफ्ट हूँ , ना ही राईट और ना पूंजीवाद का समर्थक रहूँ , ना ही साम्यवाद का – तो मेरे विचारों की कोई अहमियत नहीं है | शक्तिशाली के साथ रहने के लालच में मुझे एक ना एक लुटेरे का दामन ओढना आवश्यक हो जाता है | पर दामन ओढने से आप के ह्रदय में जो निजता तथा स्वायत्तता है वह समाप्त होती चली जाती है | जब कोई, महात्मा-गांधी ओशो, लाल बहादुर, दीन दयाल, जयप्रकाश या राजीव दीक्षित सभी चोलों को ओढने से इनकार कर देते हैं तथा अपनी अंतर आत्मा की आवाज को सुनते हुए सत्य की राह पर चल पढ़ते हैं, तो दन्त कहानियों की तरह कई इन्द्रों के सिंहासन हिलने लगते हैं तथा उन्हें अपने अन्दर की कमियां नजर आने लगती हैं | हीन भावना तथा सत्ता को खोने का डर इस हद तक पश्चिमी इशारों पर चलने वालों के मन हो घेर लेता है कि अंत में वो इन सत्य की राह पर चलने वालों की हत्या कर देते हैं |
एक गांधी को गोली मार दी जाती है, ओशो और लाल बहादुर को विदेशों में जहर दे दिया जाता है, दीन दयाल को चलती ट्रेन से मारकर फेक दिया जाता है, जयप्रकाश को जेल में चिकित्सा के अभाव में मार दिया जाता है | हीन भावना से ग्रसित समाज को यदि जागना है तो उसे “वाद” या अंग्रेजी के “इस्म” से बाहर आना होगा | हम कब तक पश्चिम की नक़ल करते हुए उनका झंडा उठाये चलते रहेंगे ? हम क्यों नहीं खुदका मौलिक कार्य खुद कर सकते ? हम क्यों जीडीपी को मानक लेकर चलते रहें ? हम क्यों पैसे को सर्वोच्च सत्ता माने ? यह सवाल हमें खुदसे पूछने चाहिए |
क्यों दुनिया के सबसे बेहतर सॉफ्टवेर इंजिनियर का दम भरने वाले भारतीयों ने गुगल , अमेज़न, फेसबुक, वात्सप, विंडोज आदि भारत में नहीं बनाये | क्या हमारा एक भी खुद का ऑपरेटिंग सिस्टम या कर्नेल है जो दुनिया भर में बिक रहा हो ? हम कब तक इस बात का झूठा रोना रोते रहेंगे कि हमारे भारत के लोग उनकी कंपनी में सबसे ज्यादा काम करते हैं | गांधीजी के समय में सस्ते मजदूर भारत से दक्षिण अफ्रीका ले जाये जाते थे | आज भी वही हो रहा है गिरमिटियो की जगह सॉफ्टवेर वालों ने ले ली है | अमृत्य सेन जैसे नोबल विजेता भी उन्ही के नागरिक हैं |
हम सफ़ेद शर्ट , काली पेंट, टाई , जुटे , कोट पहनकर पेंगुइन की तरह एक कतार में चल रहे हैं | यह विकास की एक अंधी दौड़ है जिसमे पैसे के नाम पर चंद कागज के टुकड़े हाथ में थामकर आपसे बदले में आपकी नदियाँ, पहाड़, प्रकृति, खेत , जीव, जंतु, परिवार, धर्म, खुशियाँ छीन ली जाती हैं और हाथ में रह जाता है तो बस विकास में विकसित होने का दंभ | मै नकारता हूँ ऐसे विकास के पैमानों को, और नकारता हूँ ऐसी विकास की अवधारणा को जिसमे एक चीज को नष्ट करके दूसरी बनती है | यदि पेड़ को काटूँगा तो पेपर बनेगा , यदि पृथ्वी को खोदो तो कोयले से बिजली बनेगी , पानी बर्बाद करके कारखाने लगेंगे , जीव हत्या से चमड़े के सामान, मधुमक्खियाँ , तितलियाँ , पक्षी आदि की कीमत पर मोबाइल की रेडिएशन मिलेगी|
विकास तो बच्चे का होता है जो छोटे से बड़ा होता है | विकास तो पेड़ का होता है जो बीज से निकलकर पौधा फिर पेड़ बनता है | विकास तो जीवित प्राणियों का होता है | मृत चीजों को बनाने के लिए जीवित चीजो को मृत कर देने वाले विकास की अवधारणा को मै नकारता हूँ | लोग मुझे विकास विरोधी, पिछड़ा या स्वदेशी मुर्ख कह सकते हैं | पर खोखले अन्धानुकरण की इस चूहा दौड़ में अंत में प्रकृति का नाश हो जाएगा और प्रकृति का एक भी तत्व यदि समाप्त हुआ जैसे धरती, अग्नि, जल, वायु या आकाश तो इंसान भी जीवित नहीं रह पायेगा | अतः विदेशी अन्धानुकरण छोड़ कर जितनी जल्दी हम छदम विकास से पीछा छुड़ा ले उतना ही मानव जाती के लिए उचित होगा |
अंत में मै कोई रिफरेन्स, सोर्स, साइटेशन नहीं डालूँगा क्योंकि मै बुद्धिजीवी नहीं हूँ | कुछ लोग इस बात पर सवाल उठा सकते हैं के आप इन्टरनेट क्यों प्रयोग कर रहे हो विदेशियों का ? या उनके जीमेल पर अकाउंट क्यों बनाया, आदि, जिससे वो यह दलील देने की कोशिश करेंगे के तुमने 100 में से ५ वस्तुएं विदेशी प्रयोग की तो इससे हमारी 100 जस्टीफ़ाइड हो गयीं | आप इस तरह के मूर्खतापूर्ण सांख्यिकी के पश्चिमी कुतर्क करने के लिए स्वतंत्र हैं , पर उनका मेरी सोच पर असर नहीं होगा | मुझे लोगों को जगाने का यह उचित माध्यम लगा सो मैंने प्रयोग किया | बाकी “जाकी रही भावना जैसी | प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ||” |
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Shubham Verma is a Social worker, Researcher and writer working with VIF, New Delhi as a Development Associate. His research focus is on Social sciences, Indian History, Indian culture, Internal security and Rural development. He is the founder of “Swadeshi Yuwa Swabhiman” working in grassroot areas of Madhya Pradesh.