धर्म क्या है?
धर्म अपने मूल रूप में बहुत व्यापक अर्थ वाला है | एक सामान्य पारम्परिक हिन्दू से पूछेंगे तो इसके अनेक अर्थ मिलेंगे |
मंदिर में आरती के पश्चात उद्घोष होता है – धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो!
यहाँ धर्म का अर्थ क्या है? किसी एक रिलीजन की जय हो? नहीं | सत्य की जय हो, सदाचार की जय हो, आदर्श सिद्धांतों की जय हो | पापों का, बुराइयों का नाश हो |
जब कहते हैं अमुक व्यक्ति बहुत धार्मिक है इसका अर्थ क्या हुआ? बहुत कट्टर मुसलमान है? इसका अर्थ हुआ कि वह भला है, सदाचारी है, परोपकारी है, ईमानदार है, सत्यवादी है इत्यादि |
गोस्वामी तुलसीदास राम चरित मानस में लिखते हैं “परहित सरिस धरम नहीं भाई”
मैथलीशरण गुप्त “जयद्रथ वध” में लिखते हैं –
“अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है”
यहाँ धर्म का अर्थ हुआ नैतिक कर्त्तव्य |
पुत्र को पुत्रधर्म का पालन करना है, पिता को पितृधर्म का पालन करना है – इसका अर्थ क्या हुआ? पुत्र का जो उचित कर्त्तव्य है या पिता का जो उचित कर्त्तव्य है वह उसका पालन करे | जैसे राजा के नैतिक कर्त्तव्यों की बात हो तो ‘राज-धर्म’ कहेंगे |
कहते हैं थोड़ा धर्म-पुण्य किया करो – अर्थात कुछ भले कार्य किया करो |
शास्त्रों में गुण को भी धर्म कहा है – अग्नि का धर्म है ताप,जलना | जलेगी नहीं, अपने धर्म को त्याग देगी तो उसको अग्नि नहीं कहेंगे | जल का गुणधर्म है आर्द्रता |
श्रीमद आद्य शंकराचार्य अपने ग्रन्थ विवेकचूणामणि में प्राण के धर्म बताते हुए कहते हैं –
“उच्छ्वासनिःश्वासविजृम्भणक्षुत्प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिकाः क्रियाः ।
प्रणादिकर्माणि वदन्ति तञ्ज्ञाः प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४ ॥”
अर्थात “श्वास-प्रश्वास, जम्हाई, छींक, कांपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वज्ञ प्राणादि का धर्म बतलाते हैं तथा क्षुधा-पिपासा भी प्राण के ही धर्म हैं |”
‘कैसे हैं’ इसपर शंका हो सकती है किन्तु यहाँ प्राण के धर्म अर्थात उसके गुण (characteristics) हैं, यह स्पष्ट है |
ये एक सामान्य पारम्परिक हिन्दू की समझ है | उसके लिए ये सब धर्म है | उसको आप कहेंगे धर्म मतलब रिलीजन तो उसको ये बात नहीं पचेगी |
अब धर्म शब्द की उत्पत्ति और उसके मूल प्रारम्भिक प्रयोग (जो कि वैदिक शास्त्रों में मिलता है) को देखें –
धारयति इति धर्मः – धर्म शब्द संस्कृत की धृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है धारण करना | अतः जो धारण करने योग्य हो, वह धर्म है |
मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥”
(मनुस्मृति ६.९२)
अर्थात “धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या, सत्य और अक्रोध (क्रोध न करना); ये दस धर्म के लक्षण हैं।”
(ये नहीं लिखा कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई ये चार धर्म हैं)
आरम्भो न्याययुक्तो यः स धर्म इति स्मृतः।
अन्याययस्तु अधर्म इति एतत् शिष्टानुशासनम्।।
(म.भा. वन. 207/77)
अर्थात “जो कुछ भी न्यायपूर्वक किया जाता है वही धर्म है। तथा अन्याय ही अधर्म है, ऐसा शिष्टजनों का उपदेश है।”
अतः चाहे मूल व्यवहार और प्रयोग में देखें या शास्त्रों में, धर्म का अर्थ सार्वभौमिक नियम, नैतिक कर्त्तव्य, गुण, सदाचार, सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, न्याय इत्यादि हैं यह स्पष्ट होगा | ऐसे सहस्त्रों उद्धरण दिए जा सकते हैं | कहीं भी धर्म का अर्थ आज के रिलीजन के अर्थ के रूप में नहीं कहा गया है |
धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं है
ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष में रिलीजन का अर्थ है – “the belief in and worship of a superhuman controlling power.”
कोई भी मत, मतान्तर, मज़हब, पंथ इत्यादि को रिलीजन कह सकते हैं | हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्म हैं, ऐसा कहना अनुचित होगा |
“All Religions are not same”
वैसे तो धर्म और रिलीजन भिन्न है किन्तु यह स्पष्टता न होने के कारण, और धर्म तथा मज़हबों के स्वरुप की जानकारी न होने कारण आज लोग कहते रहते हैं “All Religions are same” कहने का तात्पर्य लोगों का होता है कि “हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी एक हैं | वेद या हिन्दू धर्म भी कहता है – सभी अलग–अलग मार्ग एक ही ईश्वर तक जाते हैं, एक ही ईश्वर को लोग अलग अलग नामों से पुकारते हैं – एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ”
किन्तु हम पूरा श्लोक नहीं पढ़ते, एक चौथाई ही उद्धृत करते हैं |
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वानमाहु:॥
(ऋग्वेद, प्रथम मण्डल, 164वां सूक्त, 46वीं ऋचा)
इसका अर्थ है- ‘जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।’
इस्लाम, ईसाइयत रिलीजन, मज़हब हो सकते हैं धर्म नहीं | इन मजहबों में कोई निश्चित और एकमात्र भगवान, जन्मदाता (संदेशवाहक) और किताब हैं | इन सब के बारे में निश्चित विश्वास होना चाहिए | इन मजहबो में यदि उस मजहब के जन्मदाता को हटा दिया जाय तो उस मजहब का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा । इस कारण ये अनित्य हैं और जो अनित्य हैं वो धर्म कदापि नहीं हो सकता किन्तु सनातन वैदिक (हिन्दू) धर्म में से आप कृष्ण जी को हटायें, राम जी को हटायें तो भी सनातन धर्म पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्यूँकि वैदिक धर्म इनके जन्म से पूर्व भी था, इनके समय भी था और आज इनके पश्चात भी है अर्थात वैदिक धर्म का कर्त्ता कोई भी देहधारी नहीं। इसीलिए यह नित्य है, सनातन है।
हिन्दू धर्म अब्राहमिक मज़हबों (यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम) के समान नहीं है | इनके मौलिक सिद्धांतों में आधारभूत भेद हैं | ईसाइयत के अनुसार सभी पापी पैदा होते हैं, और इस पाप से उद्धार पाने के लिए यह मानना पड़ता है कि यीशु मेरे पापों के लिए मरे |
जबकि इसके विपरीत हिन्दू धर्म के अनुसार सभी ब्रह्म स्वरुप हैं, ईश्वर स्वरुप हैं, आत्मा हैं, परमात्मा का प्रतिबिम्ब हैं | इसमें तो चार प्रमुख ब्रह्मवाक्य ही हैं – “अहम् ब्रह्मास्मि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’, ‘तत्त्वमसि’
इसी तरह हिन्दू धर्म ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम की’ बात करता है | हिन्दू भवन्तु सुखिनः या मुस्लिम भवन्तु सुखिनः की नहीं | जबकि इस्लाम में अल्लाह के समतुल्य किसी और को मानना पाप है | किसी और का सम्मान, नमन करना अल्लाह की तौहीन है | राम और अल्लाह एक है – यह कहना ब्लासफेमी (ईश-निंदा) है | रसूल (पैगम्बर मोहम्मद) या क़ुरान की अवहेलना अपराध है | मूर्तिपूजा अपराध है |
हिन्दू धर्म में आप साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण किसी भी रूप में किसी भी ईश्वर को मानें अथवा ईश्वर को मानें ही नहीं, तो भी आप हिन्दू हो सकते हैं |
हिन्दू धर्म पुनर्जन्म को मानता है अब्राहमिक मज़हब नहीं | हिन्दू धर्म की कोई निश्चित उपासना पद्धति, संदेशवाहक, किताब नहीं जो इसे परिभाषित करे |
ऐसे ढेरों मौलिक भेद हैं | इसलिए सबको एक कहना उचित नहीं |
मज़हब मानने को कहता है, धर्म जानने को कहता है | मज़हब में जो है, उसी को सत्य मानकर विश्वास करने को कहा जाता है जबकि धर्म हमें सत्य की अनुभूति, सत्य की खोज करने को कहता है |
कोई मज़हब सिद्धांतों पर आधारित हो यानी धर्मसम्मत या धार्मिक हो यह अनिवार्य नहीं | किन्तु किसी भी मत को धार्मिक कहलाने के लिए धर्मसम्मत होना आवश्यक है |
और यदि कोई विचारधारा, कोई मज़हब अपने सिद्धांतों, अपने इतिहास, अपनी प्रकृति में अत्यंत उग्रवादी और हिंसक है, जिसका विस्तार रक्तपात भरा हो, उसको धर्माधर्म परिभाषा के परिप्रेक्ष्य से “अधर्म” या “विधर्म” कहेंगे, धर्म कदापि नहीं |
इसी वैदिक धर्म को सनातन धर्म अथवा अब हिन्दू धर्म भी कहते हैं |
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी 1995 के निर्णय में इसे “जीवन जीने की शैली” कहा है |
अतः हिंदुत्व का आधार सांस्कृतिक रहा है न की मज़हबी | उपासना पद्धति और धर्म में बहुत भेद है | उपासना पद्धति धर्म का अंग हो सकती है, धर्म नहीं |
“धर्म” रिलीजन या मज़हब नहीं होता: पं. दीनदयाल उपाध्याय –
“धर्म का सम्बन्ध केवल मंदिर, मस्जिद से नहीं है | उपासना, व्यक्ति–धर्म का एक अंग हो सकती है, किन्तु धर्म तो व्यापक है | मंदिर, मस्जिद लोगों में धर्माचरण की शिक्षा का प्रभावी माध्यम भी रहे हैं | किन्तु जिस प्रकार विद्यालय विद्या नहीं है, वैसे ही मंदिर भी धर्म से भिन्न है | हो सकता है कोई बालक पाठशाला जाय, फिर भी अपढ़ रह जाए | उसी प्रकार प्रतिदिन मस्जिद या मंदिर में जाने वाला व्यक्ति भी धर्महीन हो सकता है | मंदिर, मस्जिद में जाना – मत, मज़हब, रिलीजन है | रिलीजन को बहुत बार लोगों ने धर्म मान लिया | अंग्रेजी से अनुवाद के कारण हमारी जो बहुत सी हानियाँ हुई हैं, उनमें से एक बहुत बड़ी हानि यह हुई है |
एक ओर तो हम रिलीजन को धर्म के पर्यायवाची शब्द के रूप में प्रयोग करने लगे तथा दूसरी ओर अपने धर्म और जीवन का अज्ञान तथा यूरोपीय जीवन का आधिकारिक ज्ञान हमारी शिक्षा का विषय बन गया | फलतः रिलीजन के जितने सहचरी भाव हैं, वे हमने धर्म पर आरोपित कर दिए | यदि यूरोप में रिलीजन के नाम पर अन्याय और अत्याचार, संघर्ष और युद्ध हुए तो वे सब हमारे यहां भी धर्म के खाते में चढ़ा लिए गए | हमें लगा की धर्म पर भी लड़ाई हो सकती है | परन्तु धर्म की लड़ाई दूसरी है और रिलीजन की लड़ाई दूसरी होती है | रिलीजन यानी मत, पंथ, मजहब, वह धर्म नहीं | धर्म तो एक व्यापक चीज़ है | यह जीवन के सभी पहलुओं से सम्बन्ध रखने वाली चीज़ है | उससे समाज की धारणा होती है | उससे आगे बढ़ें तो सृष्टि की धारणा होती है | यही धारणा करने वाली जो चीज़ है, वह धर्म है |”
सेकुलरिज्म या धर्मराज्य?
पश्चिम में रोमन कैथोलिक चर्च का शासन था | नागरिक ही नहीं, राजा भी इसकी सम्प्रभुता स्वीकार करते थे | चर्च का हर फरमान, हर अवैज्ञानिक सिद्धांत सभी को स्वीकार करना पड़ता था | असहमति दंडनीय अपराध था | गैलिलिओ जैसे कई वैज्ञानिकों व दार्शनिकों को मृत्युदंड दिया गया | परिणामस्वरूप चर्च के विरुद्ध जबरदस्त विद्रोह हुआ और चर्च व राज्य पृथक हो गए | इसे कहा गया सेकुलरिज्म | और भी व्यवस्था परिवर्तन हुए – चर्च के प्रति विद्रोह के बाद राष्ट्रों का उदय हुआ, शासनकर्ता राजाओं की निरंकुशता के विरुद्ध जागरण हुआ और लोकतंत्र आया, औद्योगिक क्रान्ति के आने से मजदूरों का शोषण बढ़ा, समाजवाद आया |
अब भारत की बात करें तो यहाँ न ऐसे अवैज्ञानिक और अत्याचारी संगठित चर्च जैसा कुछ था न ही उनके दुष्परिणाम | इसलिए ऐसा कोई विद्रोह भी नहीं हुआ | सनातन संस्कृति के ही अंतर्गत भारत में विभिन्न विचार, मत, पंथ, सम्प्रदाय, दर्शन थे जिनमें परस्पर विरोध या संघर्ष नहीं था |
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व था | यहाँ कोई निश्चित उपासना पद्धति नहीं रही | जो थीं वे भी परस्पर विरोधी नहीं थी | यहाँ साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण, आस्तिक-नास्तिक में विरोध नहीं था | तो यहाँ सेकुलरिज्म ओढ़ने की आवश्यकता ही नहीं थी | सनातन संस्कृति तो सदैव से सर्वसमावेशी और न्यायनिष्ठ रही है |
यहाँ तो धर्म था | वह धर्म, जो शाश्वत होता है | सनातन, वैदिक धर्म | किन्तु विडम्बना यही रही कि हमने अपने राष्ट्र की मूल प्रकृति व गुणधर्म के प्रतिकूल चलते हुए पाश्चात्य व्यवस्थाओं को जस का तस अपने ऊपर लाद लिया | स्व-राज्य नहीं रहा, धर्म-राज्य नहीं रहा |
अब जब हमनें धर्म का स्वरुप और अर्थ समझा है तो स्पष्ट हो जाना चाहिए कि धर्मराज्य और थिओक्रैसी एक नहीं हैं | जहाँ राजधर्म का पालन हो वहीँ धर्मराज्य स्थापित हो सकता है | थेअक्रटिक स्टेट मतलब वह जहाँ किसी एक मज़हब के गुरु का राज हो और उसके मतावलम्बियों के अलावा बाकी सभी को या तो न रहने या दुसरे दर्जे के नागरिक बनकर रहने की विवशता हो | जैसे इस्लामिक राज्यों में मुसलामानों को छोड़कर बाकी सब दूसरे दर्जे के नागरिक हैं |
क्या सेक्युलर का अर्थ अधार्मिक राज्य या धर्महीन राज्य या धर्म निरपेक्ष राज्य स्वीकार किया जा सकता है? क्यूंकि एक स्वस्थ्य राज्य तो धर्महीन, धर्मविमुख अथवा धर्म-निरपेक्ष हो ही नहीं सकता क्यूंकि राज्य का काम ही है कि समाज में धर्म की व्यवस्था रहे, लॉ एंड आर्डर की व्यवस्था रहे | राज्य का दायित्व ही धर्म-व्यवस्था है | अतः धर्म-निरपेक्षता और राज्य तो परस्पर विरोधी हुए | एक आदर्श राज्य तो धर्मराज्य ही हो सकता है | जिस प्रकार अग्नि ताप-निरपेक्ष नहीं रह सकती उसी प्रकार राज्य धर्म-निरपेक्ष नहीं रह सकता |हमारी संस्कृति हमें धर्मपरायण होने की शिक्षा देती है, न कि धर्म-निरपेक्ष |
आज सनातन धर्म के मूल से दूर होने के कारण हमें इतनी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है | धर्म के मूल स्वरुप को समझ लिया जाए तो कोई ढोंगी बाबाओं का अंधभक्त नहीं बनेगा | इतना ही नहीं, धर्म परायण बनकर भारत सम्पूर्ण विश्व को पुनः आलोकित कर सकता है |
“सत्यं वद | धर्मं चर |”
सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो
– वैदिक दीक्षांत उपदेश, कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीयोपनिषद
सन्दर्भ –
- ‘व्यष्टि और समष्टि में समरसता’ पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा 14 अप्रेल १९६४ को दिया गया भाषण (एकात्म मानववाद, पं. दीनदयाल उपाध्याय, अर्चना प्रकाशन)
- http://dharmavsreligion.org/
- https://www.youtube.com/watch?v=y9oVzDBR1wc
- Being Different, Rajiv Malhotra, Pg. 259 – 262 (Read here – http://www.huffingtonpost.com/rajiv-malhotra/dharma-religion_b_875314.html)
- http://adhyatmikprakshbindu.blogspot.in/2016/04/blog-post.html
- https://www.huffingtonpost.com/rajiv-malhotra/hypocrisy-of-tolerance_b_792239.html
- Nationalist Pursuit, Dattopant Thengdi, Sahitya Sindhu Prakashan
- M. Rama Jois, The legal and Constitutional History of India