इस श्रृंखला के भाग-1 में एक धर्मिक दृष्टिकोण से गर्भहत्या के मुद्दे को परखते हुए, हमने इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास किया कि जीव कौन है। फिर भाग-2 में, हमने देखा कि कैसे धार्मिक परंपराएँ जन्म देने को एक पुण्य कर्म के रूप में मानती हैं। भाग-3 में हमने संक्षेप में एक शिशु के जन्म के अलग-अलग चरणों का अध्ययन किया और ‘जीव भ्रूण में कब प्रवेश करता है?’ का उत्तर जानने का प्रयास किया|
अब, इस समापन भाग में, हम गर्भहत्या की गतिविधियों के बारे में खोजबीन करते हैं।
क्या गर्भहत्या अधार्मिक कृत्य है?
धर्म सभी प्रकार के जीवन का आधार है और हर कर्म को धर्म या अधर्म के रूप में बांटा जा सकता है। लेकिन, धर्म क्या है? किसी कर्म को धर्म या अधर्म के रूप में वर्गीकृत करने का क्या मतलब है? धर्म का शाब्दिक अर्थ है “वह जो (हमें) धारण करता है” [1] और इसलिए कोई भी कर्म जो किसी व्यक्ति, परिवार, समाज, या ब्रह्मांड को सम्पूर्णतया परिभाषित करती है, वह धर्म है| और ऐसे कार्य जो असंतुलन और असामंजस्य पैदा करने का प्रयास करते हैं, वह अधर्म है| दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति के संदर्भ में, वैसे सभी कर्म जो एक व्यक्ति, उसके आसपास के लोग, और सम्पूर्ण समाज के समग्र कल्याण का कारण है, वह धर्म है| और वे कर्म, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं या दुसरों को हानि पहुचाते हैं, वे अधर्म हैं।
अब, गर्भहत्या के मुद्दे पर आते हैं| यह निर्धारित करने से पहले कि यह एक धार्मिक कर्म है या अधार्मिक, आइए हम इसका विश्लेषण करते हैं कि गर्भहत्या में कौन-कौन सी गतिविधियाँ शामिल है और इसका परिणाम क्या होता है?
गर्भहत्या का अर्थ मूल रूप से गर्भाशय से गर्भस्थ शिशु को हटाकर गर्भावस्था को समाप्त करना है, जिसके परिणामस्वरूप भ्रूण/ गर्भस्थ शिशु की मृत्यु हो जाती है। गर्भाशय से भ्रूण/गर्भस्थ शिशु के स्वतः हत्या होने को व्यापक रूप से “गर्भपात” के रूप में समझा जाता है, जबकि भ्रूण/गर्भस्थ शिशु को जबरन गिराने, जिससे गर्भावस्था समाप्त हो जाती है, को “गर्भहत्या” कहते हैं। दूसरे शब्दों में, चिकित्सा या शल्य साधनों का उपयोग करके गर्भावस्था का जानबूझकर अंत करने को गर्भहत्या कहते हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान, हालांकि, गर्भावस्था के सहज और प्रेरित दोनों हत्या को गर्भहत्या मानता है, लेकिन गर्भस्थ शिशु के एक निश्चित गर्भकाल के पहले तक ही [2], जो आमतौर पर गर्भधारण के लगभग 20 सप्ताह या [3] उससे पहले का होता है। यह निश्चित आयु गर्भस्थ शिशु के विकास के एक चरण को संदर्भित करती है, जिसके बाद, यह माता के गर्भ के बाहर भी स्वतंत्र रूप से जीवित रह सकता है और आमतौर पर यह काल लगभग 20 सप्ताह का माना जाता है या जब भ्रूण वजन में 500+ ग्राम का हो जाता है । 20 सप्ताह के बाद गर्भावस्था को समाप्त करना “गर्भावस्था की देर से समाप्ति” या “पोस्टवायबलिटी गर्भहत्या” के रूप में कहा जाता है और इसमें हिंसक शल्य तकनीक जैसे एक महिला के गर्भाशय में स्थित गर्भस्थ शिशु को कुचलना, अंग अलग करना और शरीर नष्ट करना शामिल है [4]। गर्भहत्या का ऐसा वर्गीकरण धर्म शास्त्रों में भी उपलब्ध है, जैसा कि हम बाद में देखेंगे, अब तक के हमारे उद्देश्य के लिए, हम 20 सप्ताह से पहले और बाद के हत्या दोनों को गर्भहत्या ही मानेंगे, जब तक कि अन्यथा उल्लेख नहीं किया जाए। पर साथ ही, हम गर्भपात के मामलों को अपनी गर्भहत्या की परिभाषा से बाहर रखेंगे, क्योंकि हिंदू ग्रंथ स्पष्ट रूप से गर्भपात और गर्भहत्या के बीच अंतर करते हैं।
इस तरह के गर्भहत्या का सीधा परिणाम यह होता है कि जीव, जो जन्म लेने के लिए गर्भस्थ शिशु में इंतजार कर रहा था, उसे मानव जन्म लेने के अवसर से वंचित कर दिया जाता है, और जब तक वह एक और उपयुक्त गर्भ न पा ले, तब तक उसे ऐसी स्थिति में इंतजार करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है जब तक कि वह एक उपयुक्त गर्भ एवं उपयुक्त दंपति, जिसके साथ उसके पितृ कर्म के संबंध रहे हों, न पा ले। और यह प्रतीक्षा कुछ क्षणों, कुछ दिनों या हफ्तों लम्बी हो सकती है या कई कारकों के कारण दशकों या शताब्दियों तक लम्बी भी हो सकती है। अर्थात, एक दंपत्ति का गर्भहत्या का निर्णय, जिनका जीव के साथ पितृ संबंध(ऋण-बंध) रहे हों, एक जीव को मानव जीवन पाने से रोक देता है, और जीव की मोक्ष की ओर यात्रा में तब तक के लिए रुकावट पैदा करता है, जब तक कि उसे एक और अनुकूल अवसर न मिले। और यही गर्भहत्या को कई स्तरों पर एक “अधार्मिक कर्म” बनाता है।
हमने पहले ही देखा कि किस प्रकार जन्म देना पुण्य कर्म, एक धार्मिक कर्म, माना जाता है जिसे एक गृहस्थ के कई कर्तव्यों में से एक माना गया है। वास्तव में, “प्रजा” या संतानोत्पत्ति गृहस्थ के तीन उद्देश्यों में से एक है- अन्य दो हैं रति (प्रेम और यौन इच्छा) और धर्म (समाज सेवा सहित गृहस्थों के अन्य कर्तव्य) – जिनकी पूर्ति के लिए विवाह नामक संस्था स्थापित की गयी है। इसलिए, गर्भहत्या करना, विवाह यानि प्रजा के मूल सिद्धांत का उल्लंघन है, और इसलिए दंपति को गृहस्थ आश्रम के अपने कर्तव्य से दिग्भ्रम करता है। दूसरा, प्रकृति द्वारा एक जीव के जन्म का दायित्व, उनके कर्म सम्बन्धों के आधार पर, एक विशेष दंपत्ति को दिया गया है। जीव अपने पिता और फिर अपनी माँ में प्रवेश करता है और भौतिक ब्रह्मांड में जन्म लेने की प्रतीक्षा करता है – ऐसा केवल तभी होता है जब कर्म बंधन माता-पिता और संतान के बीच होता है। इस प्रकार, माता-पिता का उस जीव के साथ ऋण-बंध या कार्मिक ऋण होता है, जो उस जीव को जन्म देने और बच्चे को उनकी क्षमता के अनुसार पोषण और विकास द्वारा ही चुकाया जा सकता है। इसलिए, गर्भहत्या कराकर, माता-पिता फिर से अपने संभावित बच्चों के प्रति गृहस्थ कर्तव्य के ऋणी हो जाते हैं। तीसरा, हमने पहले से ही उल्लेख किया है कि चूंकि गर्भहत्या से जीव की यात्रा में रुकावट आ जाता है और इसके कारण वह पीड़ित होता है, यह भी धर्म का उल्लंघन ही है। और अंत में, एक गृहस्थ दंपत्ति संतान पैदा करने को बाध्य हैं क्योंकि केवल ऐसे संतान के माध्यम से ही वे अपने पूर्वजों- पितरों का ऋणों का भुगतान करने में सक्षम होते हैं। चूंकि, संतान ही हैं जो तर्पण करते हैं और पितरों का श्राद्ध करते हैं, और चूंकि जीवित वंशजों के माध्यम से ही पितर अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरा करते हैं, गर्भहत्या, विशेषकर उन दंपत्तियों के द्वारा जिनको कोई संतान न हो, वे अपने पितरों के प्रति उनके कर्तव्य भी नहीं निभा पाते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि धर्म ग्रंथों में महज सम्भोग और विवाह के बीच आधुनिक विभाजन को मान्यता नहीं दी गई है। इसके बजाय, यह संभोग को, जो प्रेम और यौन इच्छा से होता है, विवाह के रूप में मानता है और इसे गंधर्व विवाह कहते हैं। और इसलिए, जब यह गृहस्थों और उनके कर्तव्यों की बात करता है, तो वह सभी जोड़ों के लिए समान रूप से लागू होते हैं, चाहे वे आधुनिक अर्थों में विवाहित हों, या वे लिव-इन में रहते हों या वे एक रात का ही संबंध हो, जो गर्भावस्था में परिणत हुआ है।
इन सभी कारणों से, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हिंदू धर्म ग्रंथों में कई जगह इसका उल्लेख पाते हैं कि कैसे गर्भहत्या एक अधार्मिक कर्म है। उदाहरण के लिए, कृष्ण यजुर्वेद (6.5.10), एक ऐसे व्यक्ति को, जिसने भ्रूणहत्या की हो,ब्राह्मण का हत्यारा ही मानता है। कौशितकी उपनिषद (3.1) गर्भहत्या को चोरी, पितृ-हत्या आदि अधर्मों की श्रेणी में रखता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र (1.7.21.7) गर्भहत्या को वैसे अधार्मिक कर्मों में शामिल करता है, जो किसी व्यक्ति को उसके वर्ण से बहार करने का कारण बनता है। मनु स्मृति (5.90) कहती है कि गर्भहत्या कराने वाली महिला अपनी मृत्यु पर उदक-क्रिया(जल अर्पण) प्राप्त करने के योग्य नहीं है। गौतम धर्मसूत्र (21.9) कहता है कि गर्भहत्या कराने वाली महिला अपना वर्ण खो देती है। इसी तरह वशिष्ठ धर्मसूत्र (28.7) गर्भहत्या को तीन अधार्मिक कर्मों में से एक के रूप में सूचीबद्ध करता है, जिससे एक महिला को अपना वर्ण खोना पड़ता है, अन्य दो हैं- अपने पति की हत्या और एक ब्राह्मण की हत्या।
उपरोक्त चर्चा से, यह स्पष्ट है कि सामान्य रूप से गर्भहत्या को एक अधार्मिक कर्म माना जाता है, जो करने योग्य नहीं है। शायद, इसका एकमात्र अपवाद वह मामला है जिसमें गर्भावस्था में जटिलता होती है, जो मां के जीवन को बचाने के लिए गर्भहत्या को आवश्यक बना देता है। इसी प्रकार, सुश्रुत संहिता के चिकत्सा-स्थान नामक अध्याय में कहा गया है कि प्रसव के समय, यदि गर्भस्थ शिशु जीवित है, लेकिन किसी भी तरह से मां को चोट पहुंचाए बिना इसे सुरक्षित रूप से जन्म देना संभव नहीं है, तो मां को बचाने के लिए शल्य प्रक्रियाओं का प्रयोग किया जा सकता है, हालांकि यह गर्भस्थ शिशु की मृत्यु का कारण होगा। यह इस बात पर बल देता है कि किसी भी कीमत पर एक माँ की जान बचाई जानी चाहिए।
गर्भहत्या का वर्गीकरण
पिछले खंड में, हमने देखा कि कैसे, सामान्य रूप से, गर्भहत्या को एक अधार्मिक कर्म माना जाता है, लेकिन अधर्म के परिमाण का कोई संदर्भ नहीं था। इसने इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता कि क्या धर्मिक विश्वदृष्टि गर्भहत्या को एक और केवल एक गतिविधि, जो अधार्मिक परिमाण का समय, संदर्भ और कर्ता से असंबंधित मानता है, या एक संदर्भ-संवेदी गतिविधि के रूप में, जिसका कार्मिक परिणाम कई कारकों पर निर्भर करते हैं, जैसे समय, संदर्भ और मानव कृत्य।
इसका उत्तर देने के लिए, हमें धर्म ग्रंथों के अध्ययन में थोड़ा गहराई में उतरना पड़ेगा और इस विषय की बारीकियों को समझना पड़ेगा।
हमने पहले ही श्रृंखला के भाग-3 में देखा कि जीव वास्तव में भ्रूण में कब प्रवेश करता है, कैसे एक जीव की अपने भौतिक शरीर (स्थूल शरीर) की मृत्यु के समय से लेकर भौतिक जगत में पुनर्जन्म की यात्रा करता है, के बारे में धर्म ग्रंथ विस्तार से बताते हैं| यह उल्लेख करता है कि जीव, जो अपने प्रारब्ध कर्म के कारण एक मानव के रूप में पुनर्जन्म लेने के लिए बाध्य है, एक मानव नर को चुनता है जिसके साथ उसका पिता-संतान की प्रकृति का कार्मिक ऋण-बंध है और उसमें प्रवेश करता है और फिर गर्भाधान के समय, वह मां के गर्भ में प्रवेश करता है और अंत में गर्भावस्था के चौथे महीने के दौरान, जब भ्रूण के अंगों का विकास हो जाता है और इसका लिंग निश्चित हो जाता है, यह भ्रूण में प्रवेश करता है और भ्रूण के साथ स्वयं की पहचान करता है। लेकिन, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, हालांकि, गर्भाधान के समय से गर्भ में जीव मौजूद है और यह गर्भस्थ-शिशु के विकास को कुछ हद तक प्रभावित कर सकता है, फिर भी इसका अस्तित्व चौथे महीने के अंत तक गर्भस्थ-शिशु से अलग होता है। चौथे महीने के बाद ही, जब गर्भस्थ-शिशु के साथ जीव की आत्म-पहचान की प्रक्रिया शुरू होती है, इसे एक जीव माना जा सकता है। आयुर्वेदिक ग्रंथ इस स्थिति को “दौहृदी”(दो दिलों वाली, एक माँ और एक बच्चे का) कहते हैं, जब जीव खुद को प्रथम बार भ्रूण के ह्रदय में स्थापित कर लेता है। इसके बाद, गर्भस्थ-शिशु गर्भावस्था के पांचवें महीने में मन और छठे महीने में बुद्धि को प्रकट करता है, और सातवें महीने तक यह पूरी तरह से जीवयुक्त हो जाता है। इस प्रकार, भ्रूण के साथ जीव की आत्म-पहचान, जो गर्भावस्था के चौथे महीने में शुरू होती है, सातवें महीने तक पूरी हो जाती है।
दूसरे शब्दों में, भ्रूण या गर्भस्थ-शिशु, जो मां के गर्भ में विकसित हो रहा है, शुरू से ही जीवन-संपन्न नहीं होता। गर्भावस्था के 15वें या 16वें सप्ताह से पहले, जीव और गर्भस्थ-शिशु का अस्तित्व अलग-अलग होता है, हालांकि वे दोनों एक ही गर्भ में मौजूद होते हैं। इस अवस्था में, भ्रूण/ गर्भस्थ-शिशु सिर्फ एक “जड़ वस्तु” होता है, एक बेजान या एक निर्जीव इकाई। यह संभवतः इस कारण से है कि अग्नि पुराण जैसे ग्रंथ भ्रूण को पहले महीने में “कलल”[5] (तरल) के रूप में और दूसरे महीने में “घन” [6] (ठोस द्रव्यमान) के रूप में संदर्भित करते हैं। चौथे महीने के बाद ही भ्रूण के साथ जीव के आत्म-पहचान की क्रमिक प्रक्रिया शुरू होती है। जीव के साथ संपन्न हो रही गर्भस्थ-शिशु की यह आंतरिक और सूक्ष्म प्रक्रिया बाहरी संकेत भी देती है, जिसका उपयोग आत्म-पहचान प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को समझने के लिए किया जा सकता है। जैसा कि हमने पहले देखा, गर्भस्थ-शिशु के ह्रदय में जीव के स्थित होने से जीव के कुछ विशिष्ट लालसाएं प्रकट होती हैं, जैसे वह मां की इच्छाओं के रूप में प्रकट करता है और आयुर्वेदिक ग्रंथ सही सलाह देते हैं कि ऐसी इच्छाओं को शीघ्र पूरा किया जाना चाहिए। इसी तरह, गर्भस्थ-शिशु की पहली गतिविधि, जिसे “क्विकनिंग” कहा जाता है, गर्भावस्था के पांचवें महीने के दौरान भ्रूण में “मनस / मस्तिष्क” के गठन की ओर इंगित करता है। मन के निर्माण से पहले, गर्भस्थ-शिशु अचेतन होता है और इसलिए कोई गति नहीं करता।
इस प्रकार, गर्भकाल को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है: 16 सप्ताह से पहले की गर्भावस्था, जिसमें गर्भस्थ-शिशु में जीवन नहीं होता और गर्भावस्था के 16 सप्ताह के बाद, जिसमें गर्भस्थ-शिशु जीवयुक्त होता है, जिसमें 16वा सप्ताह गर्भस्थ-शिशु के ह्रदय में जीव के प्रवेश का प्रारंभ का सप्ताह होता है। भ्रूण के हृदय में जीव का प्रवेश होना भ्रूण के विकास का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है, और जननांगों के गठन या ‘क्विकनिंग’ जैसे शारीरिक संकेत, जो इस प्रविष्टि की बाहर से पुष्टि करते हैं, कई प्रकार के धार्मिक उद्देश्यों के मानदंड के रूप में उपयोग किए जाते हैं, जैसे कुछ संस्कारों के पूरा करने के समय को निर्धारित करने से लेकर [7] विभिन्न चरणों में किए गए गर्भहत्या से जुड़े परिमाण और कर्म संबंधी नतीजों को जानने के लिए।
यद्यपि आप धर्मशास्त्रों में किसी भी छंद में गर्भहत्या का उपरोक्त विशेष रूप से वर्गीकरण नहीं देंगे, लेकिन विस्तृत ढंग से इन ग्रंथों को पढने पर पता चलता है कि इस तरह का वर्गीकरण इन ग्रंथों में गर्भहत्या के धर्मिक विश्लेषण की बारीकियों को समझने के लिए केंद्रीय था। गर्भावस्था के विभिन्न चरणों में गर्भहत्या से जुड़े प्रयाशचित्त(तपस्या), दंड और सामाजिक प्रतिक्षेपों पर चर्चा इस संदर्भ में विशेष रूप से उपयोगी है। लेकिन, इससे पहले कि हम इस पर गौर करें, हम पहले गर्भहत्या के वर्गीकरण पर विचार करना चाहिए, जिसका धर्मशास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख किया गया है, और जो एक ऐसे सामान्य मॉडल की तरह कार्य करता है जिसके माध्यम से गर्भहत्या को भी समझा जा सकता है।
धार्मिक ग्रंथों में गर्भपात और गर्भहत्या के बीच एक स्पष्ट अंतर है। पहले को “गर्भ-पात” अर्थात गर्भ के पतन जैसे शब्दों द्वारा संदर्भित किया जाता है, जबकि दूसरे को हमेशा ही “गर्भ हत्या” या “भ्रूण-हत्या” के रूप में संदर्भित किया जाता है। “पतन” और “हत्या” क्रमशः यह दर्शाता है कि पहला अनजाने में हुआ है, जबकि दूसरा जानबूझकर किया गया है। पराशर स्मृति (3.16) गर्भपात को गर्भावस्था के काल के अनुसार तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करती है। गर्भावस्था के पहले चार महीनों में होने वाले गर्भहत्या को “स्राव” या रिसना कहते हैं, जबकि पांचवें या छठे महीने में होने वाले गर्भहत्या को “पात” या गिरने की संज्ञा दी जाती है। गर्भस्थ शिशु के मृत जन्म होने के बावजूद सातवें महीने या बाद में होने वाले गर्भहत्या को “प्रसूति” कहा जाता है। ये शब्दावली विशेष रूप से शिक्षाप्रद है। “स्राव” या रिसना यह दर्शाता है कि पहले चार महीनों में भ्रूण बेजान होता है, जबकि “पात” या गिरना यह दर्शाता है कि चार महीने से पहले बेजान भ्रूण अब पाँचवें और छठे महीने में एक सुव्यवस्थित गर्भस्थ-शिशु में विकसित हो गया है, जिसमें जीव के प्रकट होने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। यह गर्भस्थ-शिशु सातवें महीने तक पूर्ण विकसित शिशु के रूप में पूरी तरह से जीवयुक्त हो जाता है और इसलिए इसके गर्भपात को “प्रसूति” कहा जाता है। इस प्रकार, पराशर स्मृति का कथन स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि गर्भावस्था के चौथे और पांचवें महीने के बीच का काल, विशेष रूप से 16वें सप्ताह , गर्भपात(और गर्भ-हत्या) को वर्गीकृत करने के लिए सामान्य रूप से धर्मिक परंपरा द्वारा और विशेष रूप से धर्मशास्त्रों के द्वारा एक सीमा के रूप में प्रयोग किया जाता था।
अब गर्भहत्या पर वापस आते हैं| हमने पहले ही देखा कि गर्भहत्या को एक अधार्मिक कर्म मानने के कारण ऐसा करने वाले लोग कैसे अपना वर्ण खो देते हैं। लेकिन, शास्त्रों ने गर्भावस्था के 16वें सप्ताह से पहले की गयी गर्भहत्या और 16वें सप्ताह के बाद की गयी गर्भहत्या के बीच उनसे जुड़े अधर्म के परिमाण और गर्भहत्या करने वाले को दी जाने वाली प्रायश्चित और दंड के परिमाण के द्वारा अंतर स्पष्ट किया है|
कृष्ण यजुर्वेद (6.5.10) एक ऐसे व्यक्ति में जिसने एक ऐसा भ्रूण, जिसका लिंग निश्चित नहीं हुआ हो, की हत्या की है, और दूसरा जिसने ब्रह्म हत्या की है, के बीच कोई भेद नहीं करता। इसी तरह, विष्णु स्मृति (36.1) का कहना है कि अज्ञात लिंग के भ्रूण की हत्या ब्राह्मण की हत्या करने के बराबर है। मनु स्मृति (11.88) कहती है कि अज्ञात लिंग वाले भ्रूण को नष्ट करने पर वही तपस्या करना पड़ता है जो अनजाने में हुई ब्रह्महत्या का कारण करना पड़ता है और इस तपस्या को बारह वर्ष (11.82) तक करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, गर्भावस्था के 16वें सप्ताह से पहले का गर्भस्थ-शिशु, जिसका लिंग निश्चित नहीं हो और जीव गर्भस्थ-शिशु में स्थित हो गया हो, की हत्या करने के अधर्म का परिमाण “अनजाने” में की गयी ब्रह्महत्या के समान है और प्रायश्चित करने के लिए 12 वर्षों की प्रक्रिया सुझायी गयी है।
दूसरी ओर, पराशर स्मृति (4.20) कहती है कि गर्भहत्या दो बार ब्राह्मण की हत्या करने के पाप (यानी अधर्म) के बराबर है और इसके लिए कोई प्रायश्चित या तपस्या नहीं है। यह केवल 16वें सप्ताह के बाद के गर्भहत्या के संदर्भ में हो सकता है, क्योंकि कृष्ण यजुर्वेद और अन्य संदर्भों के विपरीत, पराशर यह निर्दिष्ट नहीं करते कि लिंग निश्चित था या नहीं। इसके अलावा, पराशर एक नहीं बल्कि दो ब्रह्महत्या के परिमाण की बात करते हैं,और कहते हैं कि ऐसा कोई प्रायश्चित नहीं है, जो व्यक्ति के जीवनकाल में इस अधर्म को मिटा सके। इससे, हम कह सकते हैं कि पराशर सिर्फ 16वें सप्ताह के बाद की गयी गर्भहत्या का जिक्र कर रहे हैं।
आपस्तंभ धर्मसूत्र आगे इस मुद्दे पर प्रकाश डालता है। इसमें वर्ण(पतनीय) खोने के विभिन्न कारणों में से गर्भहत्या का भी उल्लेख मिलता है(1.7.21.छंद 7), लेकिन इस संदर्भ के बिना कि यह 16वें सप्ताह से पहले किया गया है या बाद में। लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि पतनीय होने के कारणों में “अभिषष्ट” भी सूचीबद्ध है। अभिषष्ट का अर्थ है “अभिशप्त” जिसका अर्थ कई सारे अधार्मिक कार्यों को समाहित करता है, जिनमे गर्भस्थ शिशु, जिसका लिंग अज्ञात हो, की गर्भ-हत्या भी आता है (1.9.24.Verse 7-8)| इससे ज्ञात होता है कि अभिशष्ट के अंतर्गत गर्भहत्या 16वें सप्ताह से पहले किए गए गर्भहत्या को इंगित करता है, जबकि गर्भपात “पतनीय” के अंतर्गत गर्भहत्या, 16वें सप्ताह के बाद किए गए गर्भहत्या की ओर इंगित करता है। इसका इस तथ्य से भी पुष्टि होता है कि अभिशष्ट के अंतर्गत सूचीबद्ध अधार्मिक कर्मों के लिए, आपस्तंभ ने 12 वर्षों का प्रायश्चित निर्धारित किया है (1.9.24.छंद 11- 20)| 12 वर्षों के बाद, ऐसे लोग जिन्होंने अपना वर्ण खो दिया है, उन्हें एक अनुष्ठान के माध्यम से अपने वर्ण में वापस लाया जा सकता है और वे वर्णाश्रम धर्म के पात्र बन जाते हैं, बशर्ते कि वे सफलतापूर्वक अपना प्रयाशचित्त भी पूरा करें (1.9.24.छंद 11- 20), मनु स्मृति (11.195-196)। दूसरी ओर, भ्रूणहत्या के लिए अर्थात जो 16वें सप्ताह के बाद किया गया हो, आपस्तंभ ने पूरे जीवन के लिए प्रायश्चित निर्धारित किया है, लेकिन कहा जाता कि जीवन भर का प्रायश्चित भी इस तरह के गर्भहत्या करने वाले को उसके अधर्म से मुक्त नहीं कर पायेगा, मृत्युपरांत ही वह मुक्त हो पाएगा(1.10.28 छंद 21-1.10.29 छंद 1)। आपस्तम्ब द्वारा दूसरे स्थानों पर गर्भहत्या शब्द की जगह यहाँ पर भ्रूणहत्या शब्द के प्रयोग पर गौर करें| हालांकि गर्भहत्या और भ्रूणहत्या शब्द का प्रयोग अदल-बदल कर किया जाता है, और भ्रूण का मतलब गर्भस्थ-शिशु से है| ये इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि भ्रूणहत्या का मतलब 16वें सप्ताह से पहले की गर्भहत्या ही है, जो पातनीय के अंतर्गत आता है| इस प्रकार, जबकि पाराशर का कहना है कि गर्भावस्था के 16वें सप्ताह के बाद किए गए गर्भहत्या के लिए कोई प्रायश्चित नहीं है, आपस्तंभ एक प्रायश्चित का सुझाव देते हैं जो मृत्यु के बाद ही फलीभूत होगा|
अब, उस सजा के बारे में जो एक कानूनी प्राधिकरण गर्भहत्या करने वाले को दे सकता है, याज्ञवल्क्य स्मृति का कहना है कि सजा “उत्तम” है(2.277), सिवाय उन मामलों को छोड़कर जहां महिला दासी का गर्भपात कराया गया हो(2.236),जिन मामलों में 100 पण का जुर्माना लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त, एक महिला जो बेहद दुष्ट है और एक शिशु-बालक का गर्भपात का कारण बनती है[8] उसे एक पत्थर (2.278) से बांधकर पानी में डूबा देना चाहिए।
सवाल यह है कि गर्भहत्या के संदर्भ में “उच्चतम” सजा क्या है? और क्या यह सभी प्रकार के गर्भहत्या पर लागू होता है या केवल एक विशेष काल में किए गए गर्भपात के लिए? यह जानने के लिए, हमें भाष्यकार विश्वरूप की ओर देखना चाहिए, जो कहते हैं कि “उच्चतम” शब्द “मृत्यु” को संदर्भित करता है। अतः, यह कह सकते हैं कि उक्त सजा केवल 16वें सप्ताह के बाद की गर्भावस्था को समाप्त करने के मामले में निर्धारित की गई है और पहले चार महीनों के दौरान किए गए गर्भपात पर लागू नहीं होती है, क्योंकि, अगर ऐसा नहीं था, तो पहले चार महीनों में किए गए गर्भहत्या के लिए सुझाये गए 12 वर्षों का प्रायश्चित निरर्थक हो जायेगा। साथ ही, यदि हर गर्भहत्या करने वाले को मृत्युदंड दिया जाना है, तो अलग-अलग समय पर किए गए गर्भपात से जुड़े अधर्म के परिमाण की सभी बारीकियां निरर्थक हो जाएंगी। इस प्रकार, विश्वरूप द्वारा “मृत्यु” को “उत्तम” दंड के रूप में प्रस्तुत करने के कारण, हम सुरक्षित रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि “उच्चतम सजा” की शर्त केवल 16वें सप्ताह की गर्भावस्था के बाद किए गए गर्भहत्या पर लागू ही होती है, जब जीव गर्भस्थ शिशु के हृदय में स्थापित हो जाता है।
हमने पहले देखा था कि 16वें सप्ताह के बाद की गर्भहत्या के लिए कोई भी प्रायश्चित उपयुक्त नहीं है जो जीवन काल के भीतर गर्भहत्या से जुड़े अधर्म से मुक्त करा सके, लेकिन ऐसा प्रायश्चित का प्रावधान है, जो अगर पूरे जीवनकाल तक किया जाय, तो व्यक्ति मृत्योपरांत गर्भहत्या के अधर्म से मुक्त हो जाता है। अब, सवाल यह है कि मृत्यु की सजा किस स्थिति में लागू होती है? इसके लिए, हमें मनुस्मृति का सहारा लेना चाहिए, जिसके नौवें अध्याय में महापातक के अनुसार प्रायश्चित और दंड के आपसी संबंधों के बारे में बताया गया है[9], जिसके कारण वर्ण खोना पड़ता है। मनुस्मृति के अनुसार अगर ऐसे व्यक्ति किये गए अधार्मिक कर्मों के लिए निर्धारित प्रायश्चित करने को सहमत होते हैं, तो उन्हें केवल उत्तम-सहस दंड यानि 1080 पण का दंड दिया जाना चाहिए(मनु स्मृति 9.240)। दूसरी ओर, जो लोग जानबूझकर महापातक करते हैं और इसके लिए प्रायश्चित भी नहीं करते हैं, उन्हें निर्वासन और कुछ अपवाद मामलों में मौत की सजा दी जानी चाहिए [10] (मनु स्मृति 9.241-242)।
इसलिए, 16वें सप्ताह के बाद गर्भहत्या किए जाने की स्थिति में, जब गर्भहत्या करने वाला प्रायश्चित करना चाहता हो और पूर्ण जीवन भर के लिए प्रायश्चित करने का संकल्प ले, तब “उत्तम” सजा के रूप में 1080 पण का उल्लेख है| दूसरी ओर, यदि ऐसा गर्भहत्या करने वाला व्यक्ति प्रायश्चित नहीं करता और ऐसा करने से इनकार करता है, तो उसे या तो निर्वासन,या अपवाद मामलों में, जब लिंग आधारित गर्भहत्या हो, मृत्युदंड दिया जाना चाहिए।
दूसरी ओर, गर्भावस्था के पहले चार महीनों के दौरान किए गए गर्भहत्या के मामले में, चूंकि कोई कानूनी सजा निर्धारित नहीं है, केवल प्रायश्चित निर्धारित है, जिसे गर्भपात करने वाला व्यक्ति करना स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है, जिसके आधार पर वह बाद में कार्मिक परिणामों का सामना करना पड़ता है। हालाँकि, सामाजिक स्तर पर जो लोग 12 वर्षों तक प्रायश्चित करते हैं, उन्हें 12 साल बाद उनके अपने वर्ण में शामिल कर लिया जाता है और वे संबंधित वर्णाश्रम धर्म को निभाने का अपना अधिकार प्राप्त कर लेते हैं, पर जो लोग प्रायश्चित नहीं करते, वे वर्ण-विशेष कर्तव्यों को पूरा करने का अधिकार खो देते हैं ( गौतम धर्मसूत्र 21. 4-6)। जो महिलाएं प्रायश्चित नहीं करती हैं, वे मृत्यु के बाद उदक-क्रिया (जल-परिग्रहण) और अन्य अंतिम संस्कारों जैसे सपिंडीकरण का अधिकार खो देती हैं(मनु स्मृति 5.49-50)। ऐसे परिवार कुछ हद तक सामाजिक रूप से अलग-थलग कर दिए जा सकते हैं, जैसे लोग उनके घरों में भोजन नहीं करते (मनु स्मृति 8.317)। लेकिन, इसके बाद भी, ऐसे लोग जो प्रायश्चित नहीं करते वे अपना दैनिक जीवन बिना किसी उत्पीड़न या उल्लंघन के सुचारू रूप से यापन कर सकते हैं| और जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, जहां तक कानूनी सजा का प्रश्न है, उन्हें कोई सजा भी नहीं होगी।
संक्षेप में, गर्भहत्या को दो वर्गों में बांटा जा सकता है: पहले चार महीनों के दौरान किया गया, जब भ्रूण का लिंग अज्ञात हो, और बाद में किया गया। जबकि, पहले वाले से जुड़ा अधर्म अनैक्षिक ब्रह्महत्या, जिसका 12 वर्षों का प्रायश्चित होता है, के बराबर होता है| बाद वाला दो ब्रह्महत्या के बराबर है और जिसका कोई प्रयाश्चित भी नहीं है जो उसे अपने जीवनकाल में अपने अधर्म से मुक्त कर सके। गर्भहत्या करने वाला सम्पूर्ण जीवन के लिए निर्धारित प्रायश्चित चुन सकता है और मृत्यु के बाद ही दोषमुक्त हो सकता है, तो ऐसी स्थिति में, ऐसे व्यक्ति पर 1080 पण का जुर्माना लगाया जाना चाहिए। दूसरी ओर, वैसा गर्भहत्या करने वाला व्यक्ति जो 16वें सप्ताह के बाद गर्भहत्या का कारण बनता है और उसे इस बारे में पश्चाताप भी नहीं है, तो उसे निर्वासन या मौत की सजा दी जानी चाहिए।
क्या गर्भहत्या भी एक हत्या है?
पिछले अनुभागों में विस्तृत चर्चा से यह स्पष्ट है कि इस शब्द के शब्दकोशीय अर्थ में गर्भपात को हमेशा “हत्या” के रूप में नहीं माना जा सकता है। वास्तव में, गर्भपात को तभी पूरी तरह से एक व्यक्ति की हत्या के अर्थ में माना जा सकता है, जब गर्भावस्था के 6 या 7 वें महीने के बाद गर्भहत्या किया जाता हो, जब गर्भस्थ शिशु के साथ जीव की आत्म-पहचान की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। लेकिन, धर्म शास्त्रों के अनुसार, जो बारीक और सहृदय हैं, आत्म-पहचान प्रक्रिया का पहला और सबसे महत्वपूर्ण चरण – गर्भ के चौथे महीने में गर्भ के ह्रदय में जीव का निवास- जब भ्रूण के जीवन युक्त होने का संकेत देता हो तब इसे एक व्यक्ति के बराबर मानते हैं। इस प्रकार, यह प्रश्न कि क्या गर्भहत्या किसी व्यक्ति की हत्या करने के अर्थ में है, इसका जवाब केवल “हाँ” है, जब यह चौथे महीने के बाद, विशेष रूप से गर्भावस्था के छठे महीने के बाद होने वाले गर्भपात का मामला है।
फिर भी, यही धर्म ग्रंथ सभी “गर्भहत्या” को, बिना गर्भहत्या के समय के अनुसार भेदभाव के, हत्या ही मानते हैं| इसका कारण है कि गर्भहत्या एक जीव को एक भौतिक शारीर के रूप में जन्म लेने, जो अन्यथा इसे लेना चाहिए था, से रोक देता है| यह उसे भौतिक ब्रह्मांड में फिर से प्रवेश करके और अपनी जीवन यात्रा जारी रखने का अवसर को रोक देता है| यह उसे भौतिक शरीर, जिसे वह पाने का पात्र था, से रोक देता है। इस प्रकार के रुकावट के कारण, गर्भहत्या करने वाला व्यक्ति लाक्षणिक रूप से जीव के भौतिक जीवन के अवसर को छीन कर जीवा को मार देता है और इसलिए इसे “हत्या” के रूप में वर्णित किया जाता है। “हत्या” और इसी तरह के शब्दों का ऐसा लाक्षणिक उपयोग धर्मिक परंपरा में सुविख्यात है। उदाहरण के लिए, ईशा उपनिषद (श्लोक 3), ऐसे लोगों को, जो भौतिक सुखों में इतने लिप्त हैं कि वे ब्रह्मण को आत्मन के रूप में नहीं पहचान पाते इसलिए उन्हें “आत्म हत्यारा” कहता है।
अतः, गर्भहत्या को किसी व्यक्ति की हत्या के शाब्दिक अर्थ में माना जा सकता है यदि उसने गर्भावस्था के पहले चार महीनों के बाद और अन्य सभी मामलों में अर्थात जो गर्भावस्था के पहले चार महीनों के दौरान गर्भहत्याएं की जाती हैं, उन्हें प्रतीकात्मक अर्थ में यह दर्शाने के लिए “हत्या” ही कहा जाता है क्योंकि जीव जिसे जन्म लेना था उससे यह अवसर छीन लिया गया|
निष्कर्ष
गर्भपात दुनिया भर में उग्र मुद्दों में से एक है। जबकि पश्चिम को कई दशकों से पसंद-समर्थक और जीवन-समर्थक लोगों के वैचारिक गुटों में दृढ़ता से विभाजित है, इस तरह के वैचारिक गुट धीरे-धीरे भारत में भी उभर रहे हैं। लेकिन, इस तरह के चरम वैचारिक गुट इस विषय का एक अभिन्न, सूक्ष्म और समग्र दृष्टिकोण नहीं जानते है। उदाहरण के लिए, पसंद-समर्थक विचारों का चरमपंथ गर्भस्थ शिशु का “अलग व्यक्ति” होने से इनकार कर देगा, जबकि जीवन-समर्थक विचारों का चरमपंथी अपने माता-पिता से उनके भले के लिये अच्छे निर्णय लेने की उनकी स्वतंत्र से इनकार कर देगा। इस तरह, चरमपंथ एक-दूसरे के साथ अन्याय ही कर रहा है।
भारत सदैव धर्म का देश रहा है, जिसमें जीवनयापन के सनातन सिद्धांतों ने राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन को निर्देशित किया है और बरकरार रखा है। चूँकि, धर्म की परिभाषा ही है जो सबको धारण करता हो, यदि हम अपने समाज को धर्म के सिद्धांतों पर आरूढ़ करते हैं, तो किसी के साथ अन्याय नहीं हो सकता। अंत में, गर्भहत्या का धार्मिक परिप्रेक्ष्य गर्भहत्या के एक अभिन्न सतत दृष्टिकोण को प्राप्त करने में मदद करता है, जो किसी भी पक्ष के साथ अन्याय नहीं करेगा।
हमने इस श्रृंखला में देखा कि कैसे धार्मिक ग्रंथ गर्भपात को अधर्म मानते हैं, क्योंकि यह एक जीव को शारीरिक जन्म लेने से रोकता है, जिसके लिए वह अपने प्रारब्ध कर्म के अनुसार पात्र था। फिर भी, इस कर्म के काल के आधार पर, गर्भहत्या से जुड़े अधर्म के परिमाण में अंतर होता है। धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि कैसे गर्भाधान के समय से ही जीव माँ के भीतर मौजूद होता है, और यह गर्भावस्था के चौथे महीने में गर्भस्थ शिशु के हृदय में प्रवेश करता है। इसलिए, गर्भस्थ शिशु, जो एक अ-जीवित इकाई है, महज गर्भावस्था के चौथे महीने के अंत में जीवयुक्त हो जाता है। इस प्रकार, केवल 16वें सप्ताह की गर्भावस्था के बाद या जीव द्वारा गर्भस्थ शिशु के ह्रदय में प्रवेश करने के बाद(जो माँ की अनोक्षी इच्छाओं के द्वारा पता लगाया जा सकता है) की गर्भहत्या को की एक व्यक्ति की हत्या से तुलना किया जा सकता है| जबकि 16वें सप्ताह से पहले की गर्भहत्या महज जीव के गर्भस्थ शिशु के साथ स्वयं की पहचान को रोकना है। जबकि 16वें सप्ताह के बाद गर्भहत्या में कानूनी दंड जैसे कि निर्वासन या मृत्यु और प्रायश्चित का कोई प्रावधान नहीं है, जिसका पालन कर गर्भहत्या करने वाला व्यक्ति जीवित रहते हुए कार्मिक अपराध से मुक्त हो सकता है, 16वें सप्ताह के पहले का गर्भहत्या कोई कानूनी सजा योग्य नहीं है, लेकिन इसके बजाय अगर एक गर्भहत्या करने वाला व्यक्ति पश्चाताप करता है तो वह 12 साल के लिए पश्चाताप कर सकता है, अन्यथा वह गर्भहत्या का फल इस जन्म या अगले जन्मों में भोगता है| यहाँ मुख्या बात यह है कि, जबकि दंड एक कानूनी आरोप है, प्रयाशचित्त पश्चाताप के लिए एक स्वैच्छिक गतिविधि है। इस प्रकार, गर्भहत्या का धार्मिक दृष्टिकोण यह है कि, यह मानव विवेक पर छोड़ दिया गया है कि बच्चे को जन्म देना है या नहीं या गर्भधारण के 16वें सप्ताह तक गर्भहत्या करना है(और निश्चित रूप से संबंधित कर्मिक परिणामों का सामना करना है) या नहीं, जबकि ऐसा करना 16वें सप्ताह के बाद कानूनन निषेध है क्योंकि 16वें सप्ताह के बाद से जीव भ्रूण के ह्रदय में स्थित हो जाता है और इस बीच उसके जीवन का अधिकार आ जाता है।
हम आसानी से देख सकते हैं कि भारत में वैचारिक पटल पर गर्भहत्या की वर्तमान चर्चा या गर्भहत्या संबंधी कानूनों पर वर्तमान चर्चा उपरोक्त उल्लेखित सिद्धांतों में से किसी पर भी विचार नहीं करती है। उदाहरण के लिए, ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971’ धर्म ग्रंथों में वर्णित 16 सप्ताह की सीमारेखा के विपरीत, 20 सप्ताह तक के गर्भपात की अनुमति देता है। लेकिन यही कानून गर्भहत्या को केवल उन्हीं मामलों तक प्रतिबंधित करता है, जिनमें या तो मां को मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य जोखिम की आशंका है या यह बच्चे के पैदा होने के बाद उसे इस तरह के जोखिम की आशंका है और इन्हें चिकित्सकों द्वारा निर्धारित किया जाने का प्रावधान है। यह फिर से धर्म शास्त्रों में वर्णित सिद्धांतों के विपरीत है, जो केवल उन मामलों में निषेध और दंड के रूप में कानूनी हस्तक्षेप की परिकल्पना करता है, जिसमें 16वें सप्ताह के बाद गर्भहत्या किया गया हो (सिवाय जब गर्भस्थ शिशु की हत्या मां को बचाने के लिए किया जाता है, और यह अधर्म नहीं माना जाता है) अन्यथा अन्य सभी मामलों में (यानी 16वें सप्ताह से पहले की गर्भ हत्या) माता-पिता को यह निर्धारित करने की स्वतंत्रता है कि चाहे वे एक बच्चे को जन्म दे सकते हैं, जो एक अत्यधिक शुभ और धार्मिक कर्म है, या चाहे वे गर्भहत्या और इसके कार्मिक परिणामों के चुनना पसंद करें। कानून में एक और विसंगति यह है कि यह विवाहित जोड़े को गर्भनिरोधक विफलता के बहाने गर्भहत्या की अनुमति देता है, जो कि विवाहित जोड़े के धर्म संबंधी दायित्व के विपरीत है; जबकि कानून अविवाहित जोड़े को गर्भनिरोधक विफलता के कारण गर्भहत्या का ऐसा कोई विकल्प नहीं देता, जिन्हें इस बात की अधिक आवश्यकता है क्योंकि समाज पूर्व-वैवाहिक गर्भाधान पर नकारात्मक राय रखता है और किशोर माताओं में इतनी साहस और ताकत नहीं होती की वे समाज के विरुद्ध खड़े हो सकें और इसलिए जन्म के बाद ऐसे बच्चों को अनाथ छोड़ दें, जो अधिक बड़ा अधर्म होगा, या अवैध गर्भपात का विकल्प चुनें, जो ऐसी लड़कियों के मौत या शारीरिक नुकसान का कारण बन सकता है।
उपर्युक्त उदाहरणों से पता चलता है कि वर्तमान कानून कई स्तरों पर गर्भपात के धर्मिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। इसी तरह, वैचारिक पटल के वामपंथी और दक्षिणपंथी लोगों द्वारा दी गई कई दलीलें भी धर्मिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं और इसलिए गर्भहत्या के बारे में एक समझदार, सतत, धार्मपरायण समझ विकसित करने में विफल रहते हैं। यह सही समय है जब हम धर्म ग्रंथों में वर्णित सनातन सिद्धांतों के आधार पर गर्भहत्या पर एक सतत समकालीन विचार और कानून का विकास कर सकते हैं।
The article has been translated from English into Hindi by Satyam
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Nithin Sridhar has a degree in Civil Engineering, and having worked in the construction field, he passionately writes about various issues from development, politics, and social issues, to religion, spirituality, and ecology. He is currently Editor of IndiaFacts- a portal on Indian history and culture; He is editor of Advaita Academy dedicated to the dissemination of Advaita Vedanta. He is a Consulting Editor to Indic Today Magazine. He is based in Mysuru, Karnataka. His first book “Musings On Hinduism” provided an overview of various aspects of Hindu philosophy and society. His latest book ‘Samanya Dharma’ enunciates upon general tenets of ethics as available in Hindu texts. However, his most widely read book is “Menstruation Across Cultures: A Historical Perspective” that examines menstruation notions and practices prevalent in different cultures & religions from across the world. He tweets at @nkgrock.