Abortion 1 - Hindi
 
गर्भपात, एक धार्मिक परिप्रेक्ष्य- I: जीव कौन है?

सनातन धर्म में गर्भपात विषय की एक विस्तृत अवधारणा है| हालांकि, एक उचित समझ के लिए, यह जानना महत्वपूर्ण है कि स्वयं जीवन और जन्म की प्रक्रिया के बारे में धार्मिक दृष्टि कैसी है।

दुनिया भर में मुद्दों पर बहस करने वाले लोगों के मध्य गर्भपात एक विवादास्पद विषय रहा है, विशेष रूप से इसका सम्पूर्ण नैतिक और कानूनी पहलू। इस विषय पर पश्चिमी दुनिया मोटे तौर पर दो गुटों में बंटी है: विकल्प-पसंद समूह , जो महिलाओं को गर्भपात का चयन करने का अधिकार देने की पैरोकार है, और जीवन-पसंद समूह जो कि गर्भस्थ शिशु के जन्म और जीवन के अधिकार देने के पक्ष में है।

पिछले साल, जब स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट  में उपयुक्त संशोधन कर गर्भनिरोधन-विफलता के मामले में अविवाहित लड़कियों को गर्भपात की अनुमति देने का प्रस्ताव सामने आया था, तब यह विवादास्पद मुद्दा भारत में फिर से चर्चा का विषय बना और गर्भपात के पक्ष या विरोध में लड़ाई छेड़ने के लिए कई लोग सोशल मीडिया का सहारा ले रहे थे।

हालांकि, विकल्प-पसंद और जीवन-पसंद की तर्ज पर भारत में कोई स्पष्ट गुट नहीं है, फिर भी आप पाएंगे कि लोग अपनी बात साबित करने के लिए इसी तरह के तर्कों का उपयोग कर रहे हैं। गर्भपात का समर्थन करने वाले इस बात पर जोर देते हैं कि यह स्वयं महिला का अधिकार है कि वह यह तय करे कि उसे अपने जीवन से क्या चाहिए और यह सिर्फ और सिर्फ उसी का अधिकार है| उसे ही तय करना चाहिए कि उसे अपने शरीर का प्रयोग कैसे करना है। दूसरी ओर, गर्भपात का विरोध करने वालों का मत है कि यह एक अजन्मे बच्चे की हत्या के अलावा कुछ नहीं है और इसलिए, हत्या की तरह, इसे भी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। पहला गुट मां के अधिकारों को बरकरार रखने का पक्षधर है, दूसरा गुट अजन्मे बच्चे के अधिकारों के लिए खड़ा दिखाई देता है। लेकिन, स्पष्ट रूप से, इस पूरे विमर्श में कुछ भुला दिया गया है। गर्भपात के पक्षधर शायद जानबूझकर अनदेखी करते हैं कि कोई भी अधिकार निरपेक्ष नहीं होता है, और अधिकारों में हमेशा कुछ कर्तव्य और जिम्मेदारियां निहित होती हैं, जबकि, गर्भपात-विरोधी पक्ष गर्भपात में व्यक्तियों की भूमिका होने की वास्तविकता से इनकार करते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस चर्चा ने, बिना धार्मिक सिद्धांतों के संदर्भ के, भरसक एक तरफ मुद्दे की नैतिकता और दूसरी ओर इसकी वैधानिकता पर ध्यान केंद्रित किया है।

धर्म सभी प्रकार के जीवन का आधार है। यह पूरे ब्रह्मांड को धारण करता है। सनातन धर्म ने भारतीय सभ्यता को कई हज़ार वर्षों तक फलने-फूलने और शीर्ष तक पहुंचाने में अहम् भूमिका निभाया है। इसलिए, भारतीय जीवन और इसकी पहचान धर्म में निहित है। इसलिए, गर्भपात को धर्म की कसौटी पर कसे बिना, पूरी चर्चा न केवल धर्म द्वारा प्रदान विभिन्न बारीकियों और स्पष्टता से वंचित है, बल्कि उन उपकरणों और समाधानों से भी वंचित हैं जिसका जमीनी वास्तविकता से सरोकार हो।

अंत में, लेखों की यह श्रृंखला धर्मिक दृष्टिकोण से गर्भपात के मुद्दे का विश्लेषण करने का एक प्रयास है। हम महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर जानने का प्रयास करेंगे जैसे कि गर्भपात का क्या मतलब है? क्या इसे किसी व्यक्ति की हत्या के कृत्य से तुलना किया जा सकता है? क्या गर्भधारण के समय ही भ्रूण एक जीव बन जाता है या यह गर्भावस्था के किसी अन्य अवस्था में? ऐसे और कई प्रश्न।

यह श्रंखला चार भागों में विभाजित है.

भाग-1, “जीव कौन है?” का उत्तर खोजने का प्रयास है|

भाग-2 मनुष्य जीवन का महत्त्व और जन्म देने के महात्म्य के विषय में है|

भाग-3 गर्भावस्था के चरणों और गर्भस्थ शिशु के जीवयुक्त होने के काल की विवेचना है।

भाग-4, “क्या गर्भपात एक अधर्म है?” की जांच करेगा|

आइए अब हम एक परीक्षा से शुरू करते हैं कि जीव कौन है?

जीव कौन है?

सनातन धर्म में गर्भपात विषय की एक विस्तृत अवधारणा है| हालांकि, एक उचित समझ के लिए, यह जानना महत्वपूर्ण है कि स्वयं जीवन और जन्म की प्रक्रिया के बारे में धार्मिक दृष्टि कैसी है। इसलिए, आइए एक संक्षिप्त समीक्षा के साथ यह जानना शुरू करें कि जीव कौन है।

आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जो यथासंभव भौतिकवाद में निहित है, जीव, जिसका अलग अस्तित्व है और जो मानव और अमानव दोनों प्रकार के जीवित प्राणियों में विद्यमान है, को केवल एक भौतिक शरीर के रूप में मानता है। अधिक से अधिक यह मन और इंद्रियों को मान्यता देता है। लेकिन, इसमें भी, इसे मुख्य रूप से भौतिक शरीर में निहित क्षमताओं के रूप में माना जाता है। इसलिए, एक तरफ, सभी मानव जीवन, जो संवेदनशील हैं, इसे केवल भौतिक शरीर तक सीमित मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ, गैर-मानव प्राणियों को चेतनाशून्य यांत्रिक प्राणी मानते हैं![1] इसका स्वाभाविक निष्कर्ष यह है कि मानव जीवन महज एक संयोग है, जो शायद सिर्फ़ विकास का एक परिणाम है, और मृत्यु के पश्चात शरीर के दाह या दफ़न के कारण नष्ट होने पर इसका कोई अस्तित्व नहीं है| और इसलिए, जब तक जीवन है, भविष्य की चिंता किये बिना इसका भोग करना चाहिए| परिणामस्वरूप, कई लोग, जो इस वैश्विक दृष्टि से ग्रसित हैं, इन्द्रियजनित अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए गंभीर गलतियों और अपराधों को अंजाम देते हैं, जो न केवल उन्हें परेशानी में डाल देता है, बल्कि दूसरों को भी इससे काफी नुकसान पहुंचता है।

हालाँकि, सनातन धर्म में जीव की अवधारणा ऐसी नहीं है।

विभिन्न धर्म शास्त्रों पर महज एक सतही दृष्टि डालने से और विभिन्न आचार्यों की शिक्षाओं से पता चलता है कि जीव केवल एक भौतिक इकाई के रूप में नहीं माना जाता है। कदाचित चार्वाक को छोड़कर, जो भौतिक शरीर और इंद्रियों को ही आत्मा (स्व) मानते हैं, कोई अन्य शास्त्र, परंपरा या वंशावली जीव को भौतिक जगत तक ही सीमित नहीं करते।

सनातन धर्म जीव को एक जटिल बहुस्तरीय प्राणी के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें एक ओर ब्रह्मस्वरुप है, परम दिव्य सत्य स्वरुप, और दूसरी ओर त्रि-शरीर और पंच कोष युक्त है, जिसके माध्यम से जीव बाह्य-जगत के साथ संवाद करता है। यह समझने के लिए कि इसका मतलब क्या है, हम त्रि-शरीरों से आरम्भ करते हैं।

वेदांत दर्शन[2] में इसका विस्तृत वर्णन है कि कैसे जीव एक नहीं, बल्कि तीन शरीर होते हैं: स्थूल, सूक्ष्म/लिंग, और कारण। आदि शंकराचार्य ने अपने संक्षिप्त कृति, “तत्त्व बोध” में [3] में बताया है कि इनमें से प्रत्येक निकाय क्या है और इनका संघटन कैसा है। वे स्थूल शरीर को इस प्रकार परिभाषित करते हैं: “जो पंचीकृत पांच महाभूतों से बना हुआ, पुण्यकर्म से प्राप्त, सुख- दुःखादि भोगों को भोगने का स्थान है, तथा जिसमें अस्तित्व, जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय तथा विनाश रूपा षड्विकार होते हैं, वह स्थूल शरीर है|” अर्थात स्थूल शरीर पञ्च तत्त्वों से बना है: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और जीव अपने पूर्व के पुण्यकर्मों के फलस्वरूप इस शरीर को धारण करता है ताकि वह हर्ष-विषाद, जो कि पूर्व कर्मों का ही फल है, का अनुभव कर सके, और आगे मोक्ष की ओर यात्रा कर सके। यह जीव के व्यक्तित्व का बाह्यतम स्तर है।

स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म अवस्था को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। आदि शंकराचार्य सूक्ष्म शरीर को इस प्रकार परिभाषित करते हैं: “जो अपंचीकृत(सूक्ष्म) पांच महाभूतों से बना हुआ, सत्कर्म से प्राप्त, सुख-दुःखादि भोग का साधन है,जो पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, पञ्च प्रण(प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान), मन और बुद्धि एवं सत्रह कलाओं से युक्त है, वह सूक्ष्म शरीर है| (श्लोक 11.2)” सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर की तुलना में आतंरिक है, इस अर्थ में कि सूक्ष्म शरीर का निर्माण स्थूल शरीर से पहले होता है। लेकिन, स्थूल शरीर की तरह, यह भी पांच तत्वों से बना है, लेकिन उनके सूक्ष्म रूपों में, और जीव इसको पाकर पिछले कर्मों के फल अनुभव करने के लिए संपन्न हो जाता है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर के बीच का अंतर उनके नाम से भी विदित है।प्रथम स्तर स्थूल या भौतिक है जो रक्त, हड्डियों, मांसपेशियों और मज्जा से बने शरीर की ओर इंगित करता है। जबकि, दूसरा स्तर भौतिक की तुलना में सूक्ष्म है, वास्तव में अभौतिक है, और सत्रह विषयों से बना है: मन, बुद्धि, इंद्रीय और क्रिया संपन्न करने वाले अंगों से। हालाँकि अंग स्वयं स्थूल होते हैं, उनके कार्य करने की क्षमता और जो विषय उनके कार्य करने को उद्यत करने के पीछे का कारण है वह सूक्ष्म है और सूक्ष्म शरीर से सम्बंधित है। इस प्रकार, सूक्ष्म शरीर जीव के दूसरी परत का निर्माण करता है|

और फिर, हमारे पास कारण शरीर है, जैसा कि नाम से विदित है कि सूक्ष्म और स्थूल शरीर दोनों का हेतु है। आदि शंकराचार्य ने इसकी परिभाषा, “जो गूढ़, अनादि, अविद्यास्वरुप है (सत्य से अनभिज्ञता), अन्य दो शरीरों (सूक्ष्म और स्थूल) का हेतु है, जो स्वयं के वास्तविक स्वरूप(आत्मज्ञान) से अनभिज्ञ है, द्वंद्व या विभाजन से मुक्त है”, कही है| (छंद 12.2) इसकी गहराई में गए बिना, यह समझना पर्याप्त है कि कारण शरीर हमारे प्रारब्ध कर्मों का ही भंडार है। जब प्रारब्ध कर्म फलदायी हो जाता है, तब यह सूक्ष्म और स्थूल शरीर में प्रकट होता है, जिसके परिणामस्वरूप जीव को स्थूल और सूक्ष्म शरीर से संपन्न भौतिक जगत में जन्म लेना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, बिना स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के भी, जीवात्मा अव्यक्त अभिवाजित कारण इकाई के रूप में विद्यमान रहता है। यह कारण शरीर जीव की तीसरी और सबसे आतंरिक परत है।

इसके बाद जीव अपना अलग अस्तित्व खो देता है, और ब्रह्मस्वरुप हो जाता है, जो आत्मन के रूप में सबसे आतंरिक स्वरुप है, शुद्ध स्वरूप। इसलिए, प्रसिद्ध वेदांत कथन, “जिवो ब्रह्मैव न परः” – जीव स्वयं ब्रह्म है, उससे भिन्न नहीं। दूसरे शब्दों में, यह ब्रह्मण या आत्मन ही है, जो सभी वस्तुओं और प्राणियों का अंतरतम स्वरूप है और यह भी ब्रह्मण ही है, जो माया की अपनी रहस्यमय शक्ति के माध्यम से स्वयं को कारण, सूक्ष्म और स्थूल शरीर के साथ जीव के रूप में प्रकट होता है। उपनिषदों में, जैसे तैत्तिरीय उपनिषद में, इस त्रि-शरीर तंत्र को आगे पंचकोश तंत्र में विभाजित किया गया है: अन्नमय कोष, जो स्थूल शरीर से सम्बंधित है; प्राणमय कोष, पाँच प्राणों का कोष; मनोमय कोष, मन का कोष; विज्ञानमय कोष, बुद्धि का कोष, और अंत में आनंदमय कोष, जो कारण शरीर से सम्बंधित है और इससे परे अद्वैत आत्मन है।

इस पूरी चर्चा की आवश्यकता इस कारण पड़ी क्योंकि आजकल लोग अक्सर किसी व्यक्ति की पहचान केवल स्थूल शरीर के रूप में या ज्यादा से ज्यादा मन के साथ करते हैं। लेकिन, दूसरी ओर सनातन धर्म एक जीव को पारलौकिक स्तर पर, चाहे वह मानव हों या अमानव दोनों को, ब्रह्म या ईश्वर(अब्राहमिक धर्मों के ईश्वर जैसा नहीं) से भिन्न नहीं मानता, अपितु लौकिक स्तर पर त्रि-शरीर और पञ्च कोष युक्त मानता है। दूसरा, मनुष्य से इतर प्राणियों को केवल अचेतन यांत्रिक इकाई नहीं माना जाता है। अपितु, जैसा कि श्रीकृष्ण भगवदगीता में कहते हैं, वह, अर्थात् ब्रह्म सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान है। यहाँ, ह्रदय का संदर्भ व्यक्तित्व के केंद्रीय बिंदु से है। अगर, एक जीव को एक वृत्त माना जाय, तो बाहरी परिधि स्थूल शरीर है, और केंद्र, जो कि अभिव्यक्ति का स्थान है, हृदय है। यह केंद्रीय बिंदु ब्रह्मण का जीव के रूप में प्रकट होने का पहला स्थान है और इसे अंगुष्टमात्र पुरुष– अंगूठे के आकार का पुरुष कहा जाता है, जो बाद में स्थूल और सूक्ष्म शरीरयुक्त हो जाता है। इसलिए, यह अंगुष्टमात्र पुरुष के रूप में जीव, एक जीव का आंतरिक नियंत्रक है, चाहे वह मनुष्य हो या अन्य प्राणी। जीव को मिले शरीर के आधार पर, जीव की गतिविधियों का निर्धारण होता है, लेकिन यह ब्रह्म की परिलक्षित अभिव्यक्ति अंगुष्टमात्र पुरुष ही है, जो चेतन इकाई है, जो जीव को जीवंत करती है। इसलिए, सनातन धर्म चेतना को मनुष्यों तक ही सीमित नहीं करता, बल्कि इसे सभी जीवित प्राणियों में विद्यमान मानता है, चाहे वे जानवर हों, पौधे हों, कीड़े हों या रोगाणु हों। सनातन धर्म एक कदम और आगे बढ़कर कहता है कि ” ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, वह स्वयं ईश्वर का ही अंश है” (ईशा उपनिषद वचन 1)। अर्थात्, निर्जीव वस्तुएं जैसे चट्टान, धातु इत्यादि भी ब्रह्मण ही हैं, केवल अंतर इतना है कि इनमें चेतना अव्यक्त अवस्था में है, और इसलिए, ये निर्जीव अवस्था में रहती हैं।

जीव के बारे में यह समझ कि वह महज मांस और हड्डी ढांचा नहीं, बल्कि एक सजीव इकाई होने के कारण ईश्वर का प्रतिरूप है, और बहुस्तरीय व्यक्तित्व से संपन्न है, धर्म के दृष्टिकोण से गर्भपात पर किसी भी चर्चा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आखिरकार, यह समझे बिना कि जीव कौन है, ऐसे जीव को जन्म लेने से रोकने की कोई भी चर्चा निरर्थक हो जाती है।

अगले भाग में, हम मानव जीवन के महात्म्य पर ध्यान देंगे और यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि क्यों संतान को जन्म देना एक बहुत ही महान कार्य माना जाता है।

The article has been translated from English into Hindi by Satyam

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